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साक्षात्कार करेंगे तो प्राणों के कमल, चेतना के कमल से हमारा साक्षात्कार होगा । जैसे बाहर के फूलों में पराग दिखाई नहीं देता वैसे ही हमारे हृदय के कमल में छिपी हुई पराग की स्थिति, परमात्मा की स्थिति प्रकट होने लगती है। पहले तो कुछ भी नज़र नहीं आता लेकिन जिसने भीतर जाने की ठान ही ली है वह वापस लौटने का रास्ता भी नहीं जानता। वह बात करता है तब भी भीतर के तारों से जुड़ कर, जुबान बोलती है पर वह तो दिल से जुड़ा हुआ है। उसका इकतारा बाहर नहीं, भीतर दिल में बजता है ।
प्रभु का मार्ग दिलवालों का मार्ग है। मन से प्रभु को नहीं पाया जा सकता। मन में तो कचरा है, विकार- वासनाएँ हैं । कोई भी मन के साथ प्रभु तक नहीं पहुँच सकता क्योंकि मन को साधना बहुत मुश्किल है। जैसे बूँद सागर में जाकर मिट जाती है, ऐसे ही हमारा मन, हमारी मानसिक चेतना दिल में व्याप्त हो जाती है । 'बूँद समानी समुन्द में' - तब मन नहीं रहता, दिल हो जाता है । जब अन्तरात्मा सूक्ष्म है तब अत्यन्त सूक्ष्म रूप में उसमें निवास करने वाली निराकार परमात्मा की चेतना पराग के रूप में हम सभी में व्याप्त है। बस प्रीत करो। प्रभु का मार्ग प्रीत का मार्ग है । योग स्वयं से प्रीत करने का मार्ग है। यह भक्ति और ध्यान का मार्ग है । किसी बाहर के मंदिर में जाने का मार्ग नहीं है, अपने-आप में उतरने का मार्ग है। बाहर किसी गंगाजल से अभिषिक्त करने का नहीं, आँसुओं से अभिषेक करने का मार्ग है ।
यह जीवन और जगत एक रहस्य हैं और इस रहस्य को जानने के लिए इसके केन्द्र में उतरना होगा । बाहर से हम पर्वत, नदियों, झरनों को देख सकते हैं, पर इसके रहस्य को समझने के लिए उसके उद्गम स्थल तक उतरना पड़ेगा, ठेठ भीतर तक जाना पड़ेगा । इसीलिए पतंजलि कहते हैं - हृदये चित्त संविद - हृदय में स्थित होने से चेतना का, आत्मा-अन्तरात्मा का ज्ञान होता है। यह चाबी है कि जिसे भी आत्मज्ञान की ओर, कैवल्य, ऋतम्भरा की ओर बढ़ना है तो उसे दिल के देवालय में उतरना पड़ेगा।
तेरा सांई तुज्झ में, ज्यों पुहुपन में वास । कस्तूरी का मिरग ज्यों, फिरि-फिरि ढूँढे घास ॥ कबीर कहते हैं -
मैं तो तेरे पास में बंदे, मैं तो तेरे पास में ना मैं बकरी ना मैं भेड़ी, ना मैं छुरी गंडास में मैं तो रहों सहर के बाहर, मेरी पुरी मवास में
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