Book Title: Yoga
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 187
________________ हम अपनी इन्द्रियों को और साधना के षष्टचक्रों को प्रकाशित करें। हृदय के रास्ते हम प्रभु से मिलन करते हैं। वह प्रकाश के रूप में हमारे हृदय में साकार होता है। हमारे हृदय में दिव्य प्रेम, दिव्य करुणा, दिव्य ज्ञान, आत्मा का दिव्य प्रकाश प्रकट होता है। प्रेम व ज्ञान में फ़र्क नहीं होता। दीयों में फ़र्क हो सकता है लेकिन प्रकाश में कोई फ़र्क नहीं होता। हम हृदय के द्वारा बुद्धि तक पहुँचें। बिना हृदय के बुद्धि तक पहुँच भी गए तो परिणाम नहीं आएगा। पतंजलि कहते हैं - मूर्धा ज्योतिषि सिद्ध दर्शनम् - मूर्धा ज्योति अर्थात् भकटि मध्य आज्ञा-चक्र में अथवा कपाल स्थित ब्रह्मरंध्र में ध्यान करने से सिद्धों का दर्शन होता है। ललाट प्रदेश पर आज्ञा-चक्र में, अपने मस्तिष्क के इस आध्यात्मिक केन्द्र पर ध्यान करने से वह सिद्धों से जुड़ता है। जुड़ोगे कैसे? क्या बिना कमल-डंडी के कमल खिल जाएगा? क्या बिना बीज के पौधा अंकुरित हो जाएगा? हृदय ही हमारा बीज है, प्रकाश हृदय से ही निकलेगा। हृदय से निकली हुई प्राण चेतना को अगर हम आज्ञा-चक्र पर केन्द्रित करते हैं, ललाट प्रदेश तक ले जाते हैं तो निश्चित ही व्यक्ति को सिद्धों के दर्शन होते हैं। जैन लोग कहते हैं - णमो सिद्धाणं लेकिन इतना मात्र कहने से सिद्धों के दर्शन नहीं होते। सिद्धों का दर्शन करने के लिए हमें हृदय से जुड़ना होगा, उसके तारों के साथ अपनी लय मिलानी होगी। सूर के इकतारे की तरह, मीरा के घुघरू की तरह, एकलयता साधनी होगी। पहले योगी मत बनो, पहले मीरा बनो। बिना हृदय से जुड़े एकलयता नहीं आएगी। किसी भी पद्धति से ध्यान करने वाले लोग क्यों न हों, मेरा सभी से अनुरोध है कि हृदय से ध्यान करो, हृदय से प्रीत पालो। वहीं से रास्ता खुलेगा। योग के बंद दरवाजे वहीं से खुलते हैं। अगर वहाँ से बुद्धि प्रकाशित हो गई तो ललाट-प्रदेश पर ध्यान खुलेगा, ब्रह्मरंध्र के बंद द्वार खुलेंगे। योग के बंद दरवाजे वहीं से खुलते हैं। अगर वहाँ से बुद्धि प्रकाशित हो गई तो ललाट-प्रदेश पर ध्यान करने से निश्चित ही सिद्धों के दर्शन होंगे। हमारा मस्तिष्क अनगिनत ज्ञान कोशिकाओं से भरा हुआ है। भौतिक रूप से पूरे शरीर को चलाने वाला, हृदय को धड़काने वाला हमारा मस्तिष्क ही है। शरीर की सारी गतिविधियों को संचालित करने के लिए आदेश देने वाला हमारा दिमाग ही है। इस मन को हम भ्रू-मध्य पर जो कि आध्यात्मिक केन्द्र है, इस पर केन्द्रित करते हैं। यह शिव-नेत्र कहलाता है। कहा जाता है कि शिव अगर तीसरा नेत्र खोल दे तो तांडव मच जाता है। यह अत्यधिक ऊर्जावान प्रदेश है। हमें जान लेना चाहिए कि शिव का तीसरा नेत्र क्यों खुलता है और इसके 188 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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