Book Title: Yoga
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 185
________________ लाश पड़ी है, पर पहले अपने पैसे वसूलता तब लाश उठाने देता। एक दिन उसका ख़ुद का बेटा मर गया, हिल गया। भगवान झटका देता है। जो संभल गया वह निजता की ओर बढ़ गया। जो न संभला उसे शैतान वापस अपने कीचड़ के गड्ढे में ले गया। एक और डॉक्टर हैं। सर्जन थे, अब रिटायर हो गए हैं। उनका बेटा भी डॉक्टर है। पत्नी से घबराते हैं। पत्नी से घबराना कोई ख़ास बात नहीं है,हिटलर भी पत्नी के आगे घबराता था। डॉक्टर अपने बेटे से भी घबराता है। बेटे ने पिता के हस्ताक्षर करने सीख लिए, सो हर महीने की पेंशन भी वही उठा लाता है। पिता के हाथ कुछ नहीं लगता। दस रुपये भी चाहिए तो बेटे से तीन बार माँगना पड़ता है। दुनिया की सर्जरी करने वाले ने घर वालों के आगे अपनी कैसी दयनीय हालत बना डाली है। डॉक्टर कोई क़दम भी नहीं उठा पा रहा है, कहता है इससे बेटे की बदनामी हो जाएगी। क्या इसे हम जिंदगी कहेंगे? कैसी बेबसी की हालत है? शेर थे, भेड़ बन गए। सामने वाला शेर-पर-शेर हुए जा रहा है और अपन लोग भेड़-पर-भेड़ हुए जा रहे है। प्रश्न है क्या तुम्हारी कोई निजता नहीं है? क्या तुम्हारी कोई ताक़त, कोई वजूद नहीं है? अपने सोए सिंहत्व को जगाओ। भेड़ और भेड़िया बनकर जीने का कोई अर्थ नहीं है। कहीं ऐसा न हो कि हमारे सीधेपन को लोग हमारी कमज़ोरी समझ बैठे और हमारा दोहन करते रहें। ___ ध्यान हमें सिंहत्व की पहचान देता है। हमारा सोया विश्वास और भाग्य जगाता है, जब भी किसी का सिर फूटता है तो या तो भाग्य जगता है या भाग्य फूटता है।जो होना होगा, सो होगा।अवसर को व्यर्थ मत जाने दो। ध्यान और साधना केवल अपनी निजता की खोज है। इस निजता की खोज के लिए ही पतंजलि ने कहा था - हृदये चित्त संवित् । हृदय व्यक्ति के लिए आत्म-ज्ञान का द्वार है। हृदय पर ध्यान करने से, लगातार हृदय से रू-ब-रू होने से व्यक्ति के आत्म-ज्ञान का फूल खिलता है, आत्म-ज्ञान का प्रकाश प्रकट होता है। जिस परमात्मा की, ईश्वरीय चेतना की हम लोग प्रार्थना, साधना और उपासना करते हैं, उसका अपने भीतर-बाहर उसी का सान्निध्य, उसी का नर निहारता रहता है। हृदय शांति का मंदिर है, पवित्र प्रेम का आधार है। यदि कोई व्यक्ति अपने शरीर और बुद्धि को निर्मल तथा प्रकाशित करना चाहता है तो हृदय का आलम्बन हो।अपनी ओर से हृदय में ईश्वरीय चेतना और प्रकाश का ध्यान करे। उसी प्रकाश को, उसी प्राणशक्ति, आत्म-ज्योति और आत्म-ऊर्जा को हम अपने पूरे शरीर में और बुद्धि में 186/ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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