Book Title: Yoga
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 171
________________ जीवनी शक्ति संचारित कर देता है, वह तो हमारे भीतर ही व्याप्त रहता है। जैसे दूध में नवनीत छिपा है, लकड़ी में आग छिपी है ऐसे वह हमारे कण-कण में व्याप्त है। कल हमने चर्चा की कि व्यक्ति नाभि-प्रदेश से अपने ध्यान का प्रारंभ करे। नाभि स्वास्थ्य का, शरीर का, सृजन का, निर्माण का द्वार है। नाभि पर ध्यान धरने से सृजनात्मक शक्ति का विकास होता है, रोगों से लड़ने की ताक़त पैदा होती है, प्रतिरोधक क्षमता विकसित होती है। आरोग्य को प्राप्त करने के लिए नाभि पर ध्यान करें। ध्यान में पहले किसे विषय बनाया जाए? आत्मा या परमात्मा को नहीं, पहले शरीर पर,स्वयं पर केन्द्रित तो हो जाओ। अपने मन को पहले किसी बिंदु पर एकाग्र तो कर लें। कुछ महसूस या अनुभव तो कर लें। अपने भीतर की अनुपश्यना तो कर लें। इसलिए पहली स्थिरता नाभि-द्वार पर। जैसे राजमहल में जाना हो तो सीधे तो प्रवेश नहीं कर सकते। कई द्वारों से गुज़रना होता है वैसे ही परमात्मा के मंदिर में प्रवेश करने के लिए सबसे पहले नाभि-द्वार पर आओ और उतरो भीतर। इतने कि कुएँ में बाल्टी, ठेठ नीचे तक।थोड़ी स्थिरता आए, एकाग्रता सधे। ___ कहा जाता है कि भगवान बैकुंठ में, क्षीरसागर में निवास करते हैं। हमारे शरीर का क्षीरसागर नाभि है। ऐसा गुप्त द्वार कि जहाँ ध्यान करने से हम अपनी शारीरिक चेतना से सम्पर्क साधने में सफल होते हैं। भीतर का बैकुंठ, शरीर का कमल है नाभि जिसकी नाल नीचे कुण्डलिनी से जुड़ी है। हम स्वयं को इस कमल से जोड़ें, नाल पर ध्यान न दें वरना ऊर्जा नीचे बह जाएगी। कुण्डलिनी तो जाग्रत न होगी, संसार की भोग-लिप्सा आ जाएगी। योग-सूत्र कहते हैं – नाभि-चक्र में चित्त को स्थिर करने से शरीर की स्थिति का ज्ञान होता है और चित्त को हृदय में स्थिर करने से चेतना का ज्ञान होता है । आत्मा का ज्ञान प्राप्त करने के लिए अगर किसी को रोगों से लड़ने की ताक़त चाहिए तो वह नाभि-प्रदेश पर अपना ध्यान केन्द्रित करे, पर जिसे आत्मज्ञान, प्रभु से अपनी प्रीत लगानी है और भीतर छिपे हुए मंदिरों की घंटियों के स्वर सुनने हैं, उसका आनन्द लेना है, प्रभु के प्रकाश में अन्तर्लीन होना है तो उसे हृदय के द्वार में प्रविष्ट होना होगा। उसके लिए एक ही गुफा है और वह है हृदय की। आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए व्यक्ति के पास एक ही द्वार है और वह हृदय का द्वार है । अन्तर्हदय का कमल हमें अपने में तलाशना होगा। जब हम हृदय का निरंतर साक्षात्कार करेंगे तो प्राणों के कमल, चेतना के कमल से हमारा साक्षात्कार होगा। जब हम हृदय का निरंतर 172 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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