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करते हुए बार-बार यही कहते रहे, 'प्रभु! मुझे गुरुमंत्र दीजिए ताकि मेरा उद्धार हो, कल्याण हो।' राजचन्द्र जी जब अपनी साधना समाप्त कर के उठे तो आश्चर्यचकित रह गए कि स्वयं वह तो गृहस्थ आश्रम में अवस्थित और जो उन्हें प्रणाम कर रहा है वह तो संन्यासी है, संत है और संन्यासी एक सौ आठ बार प्रणाम कर उनसे गुरुमंत्र मांग रहा है। तब राजचन्द्र जी ने मंत्र दिया, 'सहजात्म स्वरूप परम गुरु।' मैं तुम्हारा गुरु नहीं हूँ, तुम्हारी आत्मा का सहज स्वरूप, सहज स्वभाव, सहज धर्म ही तुम्हारा गुरु है। गुरु ही नहीं वरन् परम गुरु है।
निजता की प्राप्ति अकेला धर्म है। उसके लिए तो अवश्य ही, जो साधना के मार्ग पर आ चुका है। लेकिन जो अभी संसार में ही रचा-पचा है उसके लिए धर्म की कई राहें, कई पगडंडियाँ हो सकती हैं। वह दया-दान करे, घर-गृहस्थी का पालन करे लेकिन साधक का एक ही धर्म है, अपने निज स्वरूप की, आत्म-स्वरूप की प्राप्ति, अपने आप से साक्षात्कार । वह लोगों से नहीं स्वयं से इंटरव्यू लेता है, लोगों से नहीं, स्वयं से प्रश्न पूछता है। मुझे कभी कोई समस्या हुई ही नहीं इसलिए मैंने कभी किसी से कोई प्रश्न पूछा ही नहीं क्योंकि जब से धर्म का मर्म जाना है प्रश्न उठते ही नहीं हैं। इसलिए कोई भी धर्म करूँ, कोई भी क्रिया करूँ एक ही बात याद रखता हूँ कि मेरा केवल एक ही धर्म है कि जिसने इस जीवन को धारण कर रखा है, जिसने इस काया को धारण कर रखा है, जो हमारे लिए वाणी का माध्यम बनता है, जो हमारे लिए सोच-विचार का माध्यम है, जो हमारी पाँचों इन्द्रियों को काम करने की शक्ति देता है, ऊर्जा देता है - वह क्या है उसे जानें, उसका आनंद लें। शेष तो मिले या न मिले कोई बात नहीं, क्योंकि तय है कि अपने दादा जी गए तो सब यहीं छोड़ गए, पिताजी भी सब यहीं छोड़कर चले गए, गुरु जी भी कुछ साथ नहीं ले गए।
जब सब यहीं छूट जाना है तो क्यों परेशान हों। कर्मयोग करते हैं, पर फल की इच्छा नहीं रखते। जो हो सो हो, हो जाए तो भी ठीक और न हो पाए तो भी ठीक। नाम, रूप, स्थान सारी बाह्य चीजें, निजता को ढंकने का प्रावधान हैं। जो व्यक्ति संन्यास लेता है उसका नाम बदल दिया जाता है, मुझे लगता है यह अच्छी बात है क्योंकि इससे पुराना मोह छूट जाए। मैं तो सोचता हूँ कि संन्यासी को भी हर दस वर्ष बाद पुनः संन्यास लेना चाहिए ताकि बीच में जो मोह माया आ गई है, वह त्यागी जा सके, नाम भी बदल ही देना चाहिए ताकि इसका भी मोह न रहे। संन्यासी घरगृहस्थी छोड़कर तो आ जाता है लेकिन अब क्या करे। धर्म-आराधना भी करता है, पर अपना नाम कमाने में लग जाता है। गृहस्थी के कार्य तो छूट गए अब नाम कैसे
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