Book Title: Yoga
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 179
________________ निजता को खोजना, इसे प्राप्त करना ही सर्वोच्च धर्म है। अलग-अलग प्राणी अलग-अलग धर्मों को अख्तियार किए हुए हैं, पर अपनी निजता के धर्म को भूल गए हैं । उसे दुनिया भर की बातें दिन-रात याद रहती हैं लेकिन जिस जीवन को उसने धारण किया उसकी जीवनी-ऊर्जा को, जीवनी-शक्ति को, आत्मस्वरूप को भूल जाता है। हाँ, अगर कभी श्मशान जाना पड़ जाए तो वहाँ जलती हुई चिता को देखकर कुछ समय के लिए यह भाव ज़रूर उठता है कि अंत में उसे भी यहीं आना है, शरीर छूट जाने वाला है। तब उसे गीता के वचन याद आते हैं कि सोचो तुम आए तब क्या साथ लाए और जब यहाँ से जाओगे तो साथ क्या ले जाओगे। कुछ समय के लिए ये बातें चिंतन में आती हैं लेकिन बहुत लम्बे समय तक इन बातों का असर नहीं रहता। निकट संबंधी होने पर अधिकतम बारह दिनों तक वह वैराग्य की किरण रह जाएगी अन्यथा स्वार्थी, मायावी प्रकृति का इंसान होगा तो श्मशान से घर लौटते ही पिता की सम्पत्ति के लिए लड़ेगा, झगड़ेगा और पत्नी गुजर गई है तो बारह दिन भी नहीं निकल पाएँगे कि नई पत्नी लाने की जुगत बिठाने लगेंगे। यह प्रतीक्षा रहती है कि कोई व्यक्ति उसके सामने बात चलाए। ऊपर से कहेंगे कि शादी करने की इच्छा तो नहीं है, पर छोटे-छोटे बच्चे हैं इन्हें संभालने के लिए शादी तो करनी पड़ेगी। छोटे बच्चों का बहाना बनाकर फिर इंसान वासना का पुतला बन जाता है। वैराग्य की किरण भीतर रह नहीं पाती अर्थात् निजता की खोज करनी है यह हम लोगों को याद ही नहीं रहता। धर्म के नाम पर दान कर देते हैं। किसी चींटेमकोड़े को बचा देते हैं, कसाईखाने में जाकर पशुओं को तो बचाते नहीं, अहिंसा के नाम पर मकोड़े को बचाते हैं । यह अच्छी बात है लेकिन याद रखना चाहिए कि धर्म एक है जैसे फूल का खिलना एक ही धर्म है। फूल केवल एक ही धर्म जानता है - खिलना फिर मुरझा जाना । पानी की प्रकृति शीतल है, निमित्तों को पाकर भले ही गर्म हो जाए। पानी का धर्म जलती हुई आग को बुझाना है। हरेक का एक ही धर्म होता है। सोचें अगर हम दस धर्मों में चलें कि थोड़ा यह कर लें, थोड़ा वह भी कर लें, थोड़ी सामायिक, थोड़ी पूजा, थोड़ी साधना भी कर लें - करने के लिए मनाही तो नहीं है, पर तब कुछ भी हाथ न लगेगा। धर्म एक ही है, उसकी अभिव्यक्तियाँ अलग-अलग हो सकती हैं। पगडंडियाँ अलग होंगी, पर धर्म का स्वभाव एक ही है। अनंत स्वभाव और अनंत धर्म नहीं होते। हमें जैसे निमित्त मिलते हैं उसके कारण वैसी अभिव्यक्ति और प्रतिक्रिया हो जाती है। धर्म तो एक ही है - अपनी निजता की, अपने आत्म-स्वरूप की प्राप्ति। श्रीमद् राजचन्द्र जी के पास लघुराज स्वामी पहुँचे और रातभर पंचांग नमन 180/ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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