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सविकल्प समाधि वह है जिसमें एक बार तो ध्यान शून्य हो गया, लेकिन फिर से किसी वृत्ति का उदय हो गया। जिस ख़ास समय-सीमा तक समाधि की स्थिि रहती है, सीमित समय तक शून्य जैसी अवस्था बनती है । वह सविकल्प समाधि कहलाती है। हम अन्तर्लीन तो हो जाते हैं, पर चित्त अपनी प्रकृति धारण कर लेता है। और किसी वृत्ति का उदय हो जाता है । निर्विकल्प समाधि वह जिसमें हम ध्यान कर रहे हैं या नहीं कर रहे हैं, पर चित्त में शांति आ जाती है, चित्त शून्य जैसा हो जाता है । इसलिए महावीर ने कहा था अगर कोई साधक ध्यान - अवस्था को उपलब्ध हो जाए तो वह गाँव में रहे या नगर में, अरण्य में रहे या गुफाओं में, सघन आबादी में रहे या निर्जन में उसके लिए स्थान का कोई फ़र्क नहीं पड़ता । वह सारी परिस्थितियों में एक जैसा रहता है । वह दैनिक कार्य करते हुए भी तपस्वी होता है ।
अब जबकि हमने विभिन्न प्रकार से प्रत्याहार की स्थिति परिपक्व बना ली है। तो प्रश्न उठता है कि धारणा कहाँ करें, किस चीज़ की करें, कैसे करें, क्यों करें, उसका क्या परिणाम हो सकता है। आज हम उस ध्येय को समझने की कोशिश करेंगे और अपनी इन्द्रियाँ, चित्त व मन वहाँ पर केन्द्रित करने का प्रयास करेंगे। योग-दर्शन के तीन महत्त्वपूर्ण सूत्र हैं -
1. नाभि चक्र काय व्यूह ज्ञानं - नाभि चक्र में चित्त को स्थिर करने से शरीर की स्थिति का ज्ञान होता है ।
2. हृदये चित् संवित् - हृदय में स्थिर होने से चेतना का ज्ञान होता है ।
3. मूर्धे ज्योतिषि सिद्ध दर्शनम् - भृकुटि मध्य अर्थात् आज्ञाचक्र में अथवा कपाल स्थित ब्रह्मरंध्र में ध्यान करने से सिद्धों का दर्शन होता है ।
प्रत्याहार के बाद हम अपने चित्त को कहाँ केन्द्रित करें और केन्द्रित कर लिया तो उसका परिणाम क्या निकलेगा । तो महर्षि पतंजलि कहते हैं - जिस साधक ने प्राणायाम करके अपनी बहिर्गामी इन्द्रियों की धाराओं को अन्तर्मुखी अर्थात् चित्त की ओर केन्द्रित कर लिया है तब वह इस चित्त को, मानसिक शक्ति को, सचेतनता को नाभि - प्रदेश पर केन्द्रित करे । सर्वप्रथम नाभि को बाहर से अनुभव करे, हमारी मानसिक चेतना में इतनी शक्ति है कि वह शीघ्र ही भीतर प्रवेश कर जाती है। नाभि की कल्पना करते हैं, उसे महसूस करते हैं, उसका अनुभव करते हैं, उसे देखने लगते हैं तब नाभि की प्रत्यक्ष और ठोस अनुभूति होने लगती है और हम भीतर प्रविष्ट हो जाते हैं। सब कुछ धीरे-धीरे होगा, कोई जल्दबाजी नहीं । ध्यान की पहली
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