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लगाना है। चित्त भी इसीलिए लग जाता है कि प्रभु से, आत्मा से प्रीत है.स्वयं के मित्र हैं। हाँ, जो स्वयं के मित्र नहीं हैं, जिन्हें प्रभु से प्रीत नहीं है, जो संसार में अटके, लटके हैं उनके लिए तो ध्यान करना बहुत बड़ी तपस्या है। सच पूछे तो संसार की सबसे कठिन तपस्या, उनके लिए मन को एकाग्र करना कठिन काम है।
__मंत्रों का जाप करते हुए भी मन भटक जाता है क्योंकि उसमें भी रस नहीं है इसलिए रस जगाओ। अगर मन में प्रभु के प्रति रस उत्पन्न हो जाए तो मंत्रों का भी परिणाम निकलता है। चित्त को मंत्र में लगाओ और मंत्र को प्रीत से जोड़ो।
ओ, रंभाती नदियों बेसुध कहाँ भागी जाती हो
वंशी रव तुम्हारे अंदर है। हम सभी के साथ प्रभु है, हमारी चेतना है, आत्मा है। परमात्मा का सान्निध्य सर्वत्र है। किसी और का सान्निध्य सदा मिले या न मिले पर वह विधाता, रचयिता है, जो फूलों में हँस रहा है, तितलियों में उड़ रहा है, चिड़ियाओं में चहचहा रहा है, कबूतरों में शांति की गुटर-गूं कर रहा है, हिरणों के साथ कुलाँचे भर रहा है, भँवरों में गुनगुना रहा है, इंसानों के साथ संवाद कर रहा है, पत्तों में डोल रहा है। वह सर्वत्र है, उसका आनन्द लो, उसकी मस्ती में डूब जाओ। तब धारणा हो जाएगी और ध्यान स्वतःसध जाएगा।
तेरो तेरे पास है, अपने मांहि टटोल।
राई घटै न तिल बढ़े, हरि बोलो हरि बोल॥ तेरा तेरे ही पास है संसार में जीते हुए, मन की प्रकृति में रहते हुए भी अगर एकाग्रता का गुर सीख जाते हैं, सरसता लगाने में समर्थ हो जाते हैं, ध्यान-दशा की टॉर्च मिल जाती है तो जिसे योगसूत्रों में समाधि कहा जाता है वह उपलब्ध हो सकती है। वह उच्च दशा हासिल हो सकती है जहाँ प्रज्ञा का प्रकाश मिलता है, ऋतम्भरा का उदय होता है, अध्यात्म का प्रसाद प्राप्त होता है।
समाधि जब मिलेगी तब मिलेगी पर पहले हमारा मन उसमें रम जाना चाहिए। अगर वह दिल में बस जाए तो -
तुम्हें देख क्या लिया कि कोई सूरत दिखती नहीं पराई। तुमने क्या छू दिया बन गई महाकाव्य गीता चौपाई॥ कौन करे अब मठ में पूजा, कौन फिराए हाथ सुमिरनी।
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