________________
जीना हमें भजन लगता है, मरना हमें हवन लगता है ॥ याद किसी की मन में हो तो, जग हर वृन्दावन लगता है।
वृन्दावन कहीं और नहीं आपके लिए हर जगह वृन्दावन हो जाता है। मीरा, सूर या चैतन्य महाप्रभु बनने की ज़रूरत है । वृन्दावन साथ ही होता है । मन के लग जाने का नाम ही धारणा और ध्यान है । धारणा और ध्यान में इतना फ़र्क है कि जब हम किसी चीज़ पर स्वयं को केन्द्रित करें और चित्त विचलित हो जाए, चित्त की वृत्तियाँ बाधित करें और हम पुनः पुनः चित्त को केन्द्रित करें - यह स्थिति धारणा कहलाती है। लेकिन जहाँ हम केन्द्रित हो रहे हैं - ब्रह्मरंध्र, हृदय कमल या चित्त की आनन्द दशा में केन्द्रित हो रहे हों या अन्नकोष, प्राणकोष, मनोमय कोष, विज्ञान या आनन्दमय कोष में स्थिर हो रहे हों, एकलय और एकतानता बन गई अर्थात् कोई वृत्ति हमें बार-बार बाधित नहीं करतीं, हमारी एकाग्रता सहज और अनायास बनी रहती है तब वह स्थिति ध्यान कहलाती है ।
ध्यान की अवस्था जीवन में भी इतने गहरे उतर जाती है कि आपका प्रत्येक कार्य ध्यानयुक्त होने लगता है। आप खिलाड़ी हों या व्यवसायी, गृहिणी हों या कामकाजी, व्यापारी हों या अफसर, विद्यार्थी हों या वेबसाइट चलाने वाले आप कुछ भी हो सकते हैं अगर अपने अध्यवसाय के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित हैं तो वह भी ध्यान का एक अंग बन जाता है। विद्यार्थी जीवन में एक रात मेरे भाई ने मुझे नींद से उठाकर किसी चीज़ के बारे में पूछा कि अमुक वस्तु कहाँ है? तो मैंने उत्तर दिया रैपीडेक्स इंग्लिश स्पीकिंग कोर्स में। दूसरे दिन भाई ने मुझे बताया कि मैंने क्या ज़वाब दिया था। सुनकर उस समय तो हँसी आ गई लेकिन बाद में जब ध्यान का मर्म समझा तो जाना कि वह पढ़ाई के प्रति ध्यान की अवस्था का परिणाम था अर्थात् चित्त में, अन्तर्मन में, वह ज्ञान, वह शिक्षा, वह पढ़ाई इतनी भीतर तक पैठ चुकी थी कि स्वप्न भी वही, उत्तर भी वही ।
अन्य किसी वृत्ति के उदय के बिना जब हम अपने लक्ष्य, ध्येय, चेतना, परमात्म-तत्त्व के प्रति एकलय, लयलीन हो जाते हैं, तब ध्यान का उदय होता है । यही ध्यान हमने ध्येय बनाया था उसमें दत्तचित्त होकर इतने अन्तर्लीन हो जाते हैं कि ध्यान शून्य जैसा हो जाता है । तब ध्यान, ध्याता और ध्येय अलग-अलग नहीं रहते वरन् हम ध्येय स्वरूप ही हो जाते हैं। यह स्थिति समाधि कहलाती है। पतंजलि की भाषा में - चित्त को देश - विशेष में अर्थात् ध्येय में बाँधना धारणा है, ध्येय में एकतान एकलय हो जाना ध्यान है और जब ध्यान में केवल ध्येय मात्र की ही प्रतीति हो और
154|
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org