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रोगमुक्ति के लिए कौन-सा करें ध्यान
मेरे प्रिय आत्मन्!
मनुष्य का जीवन मिट्टी के दीये जैसा है। यह शरीर मिट्टी की तरह है और चेतना की ज्योति लौ की तरह है। मिट्टी तो सर्वसुलभ है लेकिन मल्य तो मिट्टी में से प्रकट होने वाली ज्योति का है। मिट्टी अगर मिट्टी जैसी रहे तो किसी को पुरुषार्थ करने की आवश्यकता नहीं है लेकिन जो मिट्टी चिराग बनकर ज्योतिर्मय तत्त्व की प्राप्ति चाहती है तो हमें मिट्टी से आगे बढ़कर स्वयं को प्रकाश तक की यात्रा के लिए तैयार करना होगा। हमें देखना होगा कि दीये ने ऐसा क्या किया कि वह दीपावली का प्रतीक बन गया। माटी कुम्हार की शरण में जाती है। कुम्हार उसे पानी से गीला करता है, पाँवों से रौंदता है अर्थात मिट्टी ने अपने अस्तित्व को, अपने अहंभाव को यह कहते हुए मिटा दिया कि हे कुम्हार, मेरे जीवन के गुरु ! तुम जैसा मेरे जीवन का निर्माण करना चाहो, कर दो, मैं ख़ुद को मिटाने के लिए तैयार हूँ। कुम्हार उसे चाक पर चढ़ाता है, भट्टी में पकाता है। तब कहीं दीये का निर्माण होता है। इसके आगे दीप का नवसंस्कार होता है, किसी के द्वारा प्रेम का तेल भरा जाता है, ज्ञान की बाती लगाई जाती है, अन्तर् ध्यान की, अन्तर्दृष्टि की लौ उसमें सुलगाई
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