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उस ध्यान का स्वरूप शून्य जैसा हो जाए तब वही समाधि कहलाता है ।
काया मुरली बाँस की, भीतर है आकाश । उतरें अन्तर् - शून्य में, थिरके उर में रास ॥
हमारी देह तो बाँस की मुरली के समान है लेकिन इसके भीतर एक शून्य, एक आकाश, एक परमात्मा छिपा हुआ है, आत्मतत्त्व इसमें विराजमान है। जब हम इस शून्य के भीतर कदम बढ़ाने में सफल हो जाते हैं, तब उसमें रास रचता है अर्था विभिन्न प्रकार की रिद्धियाँ, सिद्धियाँ, निधियाँ, अपने-आप अनेकानेक आलोक, चमत्कार, अन्य-अन्य विशिष्ट संभावनाएँ हमारे भीतर साकार होने लगती हैं। हम सभी समाधि की ओर बढ़ें, प्रभु प्रीति प्रगाढ़ बने, इसी शुभ मंगल भावना के साथ
नमस्कार ।
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