Book Title: Yoga
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 150
________________ हर जगह है। हमने अपना चित्त जो प्रतिक्षण संसार में लगा रखा है उसकी दिशा बदल देना है। जो याद पत्नी की रहती है वह प्रभु से जुड़ जाए, ईश्वर से जुड़ जाए, दिशा बदल जाए, यही ध्यान है। चित्त को एकाग्र करने के विभिन्न तरीके हैं - प्राणायाम के द्वारा या नाभि, हृदय अथवा ललाट प्रदेश पर ध्यान करके चित्त को एकाग्र किया जाए या जैसा कि मैंने कहा नृत्य द्वारा भी एकाग्रता साधी जा सकती है। प्रायः लोग मुझसे कहते हैं उनसे ध्यान नहीं होता, कैसे करें? ध्यान को इतना नीरस कर दिया गया है कि लोगों की उसमें रुचि ही नहीं होती। क्रिकेट की कमेंट्री में कितना रस आता है, फिल्मों में कितना रस है। ध्यान भी बिना रस के किया जाएगा तो बोझिल बन जाएगा, इसलिए ध्यान को भी रसमय बना लिया जाए, भक्तिमय, तालयुक्त बना लो। हमारी थिरकन सहज ही धारणायुक्त हो जाएगी। नीरसता से ऊब पैदा होती है इसलिए हर चीज़ को सरस बनाएँ। संसार में पत्नी, परिवार, बच्चे, घर, व्यवसाय, कामकाज न हो तो संसार भी नीरस हो जाएगा। ये चीजें संसार को सरस बनाती हैं। इसलिए ध्यान को भी सरसता से जोड़ो। ध्यान को भी जीवन का उत्सव और आनंद बना लें। तब हम कहेंगे हंसिबा, खेलिबा, धरिबा ध्यानम् और अपने-आप में ध्यान धरेंगे। विनोबा भावे अगर झाड़ लगा रहे होते और कोई पूछता कि क्या कर रहे हो तो उनका जवाब होता माला फेर रहा हूँ। लोगों को लगता यह कैसी माला है - काम झाड़ लगाने का कर रहे हैं और कहते हैं माला फेर रहे हैं। विनोबा जी कहते थे - भाई, जितनी बार बुहारी करता हूँ उतनी ही बार राम का नाम लेता हूँ। यह आपके लिए बुहारी हो सकती है, पर मेरे लिए तो यह भी भगवान का भजन है। जब कर्म को भी प्रार्थना बना लोगे तो ज़िंदगी में हमें कोई काम बोझिल नहीं लगेगा। कार्य कोई भी छोटा या बड़ा नहीं होता, बस उसे ईश्वर की साधना समझना चाहिए।संडास भी अगर साफ करें तो प्रभु का मंदिर ही जानें। भगवान या तो कहीं नहीं है या सर्वत्र है। हम जहाँ जिस रूप में उसका अहसास करेंगे वह वहाँ उस रूप में हाज़िर है,शेष तो वह साकार कभी नज़र आता नहीं। अब त्रेता और द्वापर युग तो है नहीं कि उनका साक्षात् रूप नज़र आए। अब तो जिस रूप में भी उसका आनन्द लेना चाहोगे वह वैसा ही मिल जाएगा। इसलिए मैं तो कभी यह प्रार्थना नहीं करता कि आओ प्रभु दर्शन दो। मैं तो जहाँ होता हूँ बस वहाँ उसका आनन्द लेता हूँ, उसका अहसास, उसकी अनुभूति करता हूँ। ध्यान में हम क्या रहे हैं? आत्मा में परमात्मा का आनन्द ले रहे हैं। आत्मा को क्या जानना वह तो हम हैं ही, यह देह आत्मा के कारण ही तो खड़ी है। आत्मा में परमात्मा की अनुभूति | 151 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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