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माफ़ी माँग लो, माफ़ कर दो। क्षमा से बढ़कर कोई धर्म नहीं। शांति से बढ़कर कोई सामायिक या समाधि नहीं। प्रेम से बढ़कर कोई पुण्य नहीं और आनंद से बढ़कर कोई अमृत नहीं।
__ अपने यहाँ एक पर्व मनाते हैं - संवत्सरी-पर्व । इस दिन जैन समुदाय के लाखों-करोड़ों लोग एक-दूसरे से क्षमावणी करते हैं। वे आगे होकर दूसरे से साल भर में तनिक भी अगर वैर-विरोध हुआ, जाने-अनजाने भी किसी के दिल को ठेस लगी हो तो क्षमा-प्रार्थना करते हैं। जो व्यक्ति पन्द्रह दिन में समस्त जीवों से क्षमा प्रार्थना कर लेता है वह व्यक्ति भव्य जीव कहलाता है। इसीलिए पाक्षिक प्रतिक्रमण किया जाता है। पन्द्रह दिन में न कर पाए तो एक माह में कर लें, एक माह में भी न कर सकें तो चार माह पूर्ण होने पर तो अवश्य ही अपनी ओर से क्षमापना कर लें। जो व्यक्ति चार माह में भी क्षमापना नहीं करता वह अपने कर्मों को भव-भवांतर तक आगे बढ़ाता है। अगर चार माह में भी न कर पाए तो वर्ष में एक बार संवत्सरी को तो अवश्य ही जिन-जिनके प्रति वैर-वैमनस्य, दौर्मनस्य के निमित्त बने उनसे क्षमा प्रार्थना कर लें।
__ जिम में जाकर सीना चौड़ा नहीं होता, बल्कि सीना उनका चौड़ा होता है जो अपनी गलती को स्वीकार करके क्षमा मांग लेते हैं और गलती करने वाले को अपनी ओर से क्षमा करने का बड़प्पन दिखाते हैं। स्वर्ग उन्हीं के लिए हुआ करता है जो ग़लती करने वालों को माफ़ कर देते हैं। ईश्वर उन्हीं से प्यार करते हैं जो दयालु और क्षमाशील होते हैं।
छिमा बड़न को चाहिए, छोटन को उत्पात।
कहाँ 'रहीम' हरि को घट्यो, जो भृगु मारी लात॥ कहते हैं : ऋषियों में यह चर्चा चल पड़ी कि ब्रह्मा, विष्णु और महेश - इन तीन देवों में श्रेष्ठ कौन है? सबके अपने-अपने तर्क थे। कोई निर्णय न हो पाया। आख़िर यह ज़िम्मा भृगु ऋषि पर छोड़ा गया। भृगु ऋषि पहले ब्रह्मा जी के पास गए और जाकर ब्रह्मा जी के बराबर के आसन पर बैठ गए। ब्रह्माजी को बुरा लगा। धरती का एक संत भगवान की बराबरी करे। ऋषि ने ब्रह्मा जी के मन के भाव पढ़ लिए। वहाँ से पहुँचे महादेव के पास। ऋषि ने इस बार तो हद कर दी। सीधे महादेव के आसन पर ही बैठ गए। महादेव की त्यौरियाँ चढ़ गईं। ऋषि वहाँ से विष्णु के पास पहुँचे। विष्णु के साथ तो वे इतनी बदतमीज़ी से पेश आए कि लक्ष्मी जी तो हिल गईं। भृगु सीधे शेषनाग की शय्या पर चढ़ गए और विष्णु की छाती पर सीधे लात दे मारी।
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