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सकारात्मक विचार रहते हैं वह व्यक्ति किसी भी हालत में मानसिक हिंसा का दोषी नहीं बन पाता। वह सदा दूसरों का भला चाहेगा,रहमदिल रहेगा, दूसरों का कल्याण करना चाहेगा। विपरीत वातावरण बन जाने पर अपने मन पर संयम करते हुए सकारात्मक व्यवहार करना यह हमारे लिए पहला यम है। अहिंसा परमोधर्म:- का नारा लगाने से अहिंसा नहीं होती। यह तो जीवन का पाठ है। अहिंसा योग का अंग है।अहिंसा शब्दों से बोलने की नहीं, जीने की वस्तु है।
दूसरी है वाचिक हिंसा - इसके नियंत्रण का उपाय है जब भी बोलें मधुरता, विनम्रता और विवेक से बोलें। या तो बोलें ही नहीं - सबसे मीठी चुप। बोलने की कोई ज़रूरत ही नहीं है। हाँ, अगर बोलो तो मुस्कुरा कर, तमीज से, विनम्रता और मधुरता से बोलो। शिक्षित, संस्कारित और कुलीन की पहचान ही यही है कि वह जब बोलता है तो उसकी भाषा का क्या स्तर है। हम जो अहिंसा के प्रति आस्थावान हैं,शाकाहारी जीवन जीते हैं, साधारणतः मच्छर मारने की कल्पना भी नहीं करते, पानी भी छानकर पीते हैं, रात्रि में भोजन करना पसंद नहीं करते, कायिक हिंसा को इतने उच्च स्तर तक जीना चाहते हैं - वहीं हम वाणीगत अहिंसा के स्तर पर कमजोर पड़ जाते हैं।
वाचिक हिंसा पर अंकुश लगाने के लिए - मिष्टभाषी बनें। विनम्रता, मधुरता से बोलें। ऐसी वाणी कभी न बोलें जो दूसरे के दिलों को भीतर तक ठेस पहुँचा दे। निंदा, आलोचना, अपमान न करें, बद्दुआ न दें। बदुआ तभी निकलती है जब भीतर तक आत्मा व्यथित हो जाती है और व्यथा आती है वाणी द्वारा अपमानित होने पर।
ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोय।
औरन को शीतल करै, आपहु शीतल होय॥ वाणी का विवेक रखेंगे तो महाभारत नहीं होगा।द्यूत या द्रोपदी के चीरहरण से महाभारत नहीं हुआ। महाभारत हुआ द्रोपदी के अहंभाव से, उसके द्वारा प्रयुक्त गलत भाषा से महाभारत का बीजारोपण हुआ। इंद्रप्रस्थ के नये राजमहल में दुर्योधन को बुलाया गया। वहाँ नाना प्रकार के कक्ष थे जिनमें एक काँच का कक्ष भी था लेकिन इतना पारदर्शी कि पता ही न चलता था कि वहाँ काँच है। दुर्योधन सीधा चलता गया और काँच से टकरा गया। द्रोपदी ने यह देखा तो अनायास ही वाचिक हिंसा हो जाती है कि अंधे का बेटा आख़िर अंधा ही होता है। इस तरह महाभारत का बीज वपन हो गया।स्मरण रहे हिंसा के बदले में हिंसा लौटती है और क्षमा के बदले
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