Book Title: Yoga
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 138
________________ अपनी आत्मा में, अपने प्राणों में लौटा लाना ही प्रत्याहार या प्रतिक्रमण है। ऐसे समझें जैसे गाय-ढोर दिन भर इधर-उधर विचरण कर, जहाँ भी उपलब्ध हो घास ग्रहण कर संध्या में वापस लौट आते हैं। दिन भर घूमती हैं लेकिन सूर्यास्त की अवधि जानकर गायें खुद-ब-खुद अपने घरों की ओर लौट आती हैं। ये गौओं का चरने जाना संसार है और पुनः वापस लौट आना ही प्रत्याहार है। इसीलिए जैनों में एक व्यवस्था है कि सुबह और शाम को प्रतिक्रमण करो अर्थात् हमारी चेतना जो इधर उधर भटक जाती है, यहाँ तक कि रात्रि में भी जो भटकाव आए हैं उन्हें सुबह प्रतिक्रमण कर व्यवस्थित किया जाए। ठीक इसी तरह सायंकाल में प्रतिक्रमण किया जाए कि हमारे द्वारा दिन में जो भी कार्य - व्यापार में, भोजन पकाने में, किसी के साथ व्यवहार करने में, वाणी-भाषा का उपयोग करने में, गलत हुआ हो उसका प्रायश्चित, प्रतिक्रमण कर लेना चाहिए। इन सबमें उलझी अपनी चेतना को वापस अपने में लौटा लाओ। जो हुआ उसके लिए मिच्छामि दुक्कड़ - अर्थात् मेरे दुष्कृत, मिथ्या व्यवहारों के लिए क्षमा प्रार्थना करता हूँ। ये अच्छी टैक्नोलॉजी है, जो महावीर द्वारा प्रदत्त है। प्रत्याहार भी एक अच्छी टैक्नोलॉजी है अर्थात् प्राणायाम संपन्न करने के बाद वह अपनी चेतना को, अपनी इन्द्रियों को, अपने भटकते हुए चित्त को,मन को वापस स्वयं में केन्द्रित करे क्योंकि इन्द्रियों का धर्म बहिर्गामी, बहिर्मुखी है। इन्द्रियाँ हमारे चित्त व मन से प्रेरित होकर कार्य करती हैं। इसलिए चित्त की गति हमेशा बहिर्मुखी होती है। चित्त इन्द्रियों से और इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों से जुड़ी रहती हैं। कान हमेशा ध्वनि को ग्रहण करने में सक्रिय रहते हैं, आँखें हर दृश्य को ग्रहण करती रहती हैं। नाक को कहना नहीं होता है। वह अपने-आप हर गंध को ग्रहण कर लेती है। चाहे रस हो या गंध या रूप या शब्द या स्पर्श हो - हमारी पाँचों इन्द्रियाँ हमेशा अपने-अपने विषयों से जुड़ी रहती हैं। __ध्यान में भी अगर अचानक इधर-उधर की जोर की आवाज़ आए तो हमारा चित्त उससे प्रभावित हो जाता है और हमारी इन्द्रियाँ सक्रिय हो उठती हैं। हमारी इन्द्रियाँ लगातार बाहर के विषयों से अपना संबंध बनाए रखती हैं, सक्रिय व जागरूक रहती हैं। रस, गंध, रूप, स्पर्श उससे अछूता नहीं रहता। इसीलिए कहा जाता है - चित्त में समता रखो, राग-द्वेष मत रखो, क्योंकि यह तो संभव ही नहीं है कि कोई हमारे आसपास बोले और हम न सुनें। यह भी नहीं हो सकता कि कुछ हमारे सामने से निकले और उसे न देखें। आँखें बंद कर लें तो कभी-न-कभी तो | 139 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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