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सामने खड़ा होकर सोचता है कि उसने इस आदमी को कहीं देखा है। क्या स्थिति है! स्वयं को पहचानने के लिए किसी को परिचय-पत्र (आइडेन्टिटी कार्ड) देखना पड़ता है, किसी को आईना देखना पड़ता है, किसी को राशन-कार्ड ढूँढना पड़ता है कि देखो मैं यह हूँ। योग वह आईना है जो पलकों को झुकाने पर हमारे बोध में, ज्ञान में, अन्तर्दृष्टि में हमारी स्वयं से पहचान करता है। योग और कुछ नहीं, खुद से रूब-रू होने की कला है। योग स्वयं के साथ साक्षात्कार है, स्वयं को आत्मसात करने का मार्ग है । यह वह सनातन मार्ग है जिससे हमें स्वयं का ज्ञान होता है, हमारे जन्मजन्मान्तर के क्लेश-संक्लेश दूर होते हैं। हमारे जीवन के दुःख-दौर्मनस्य और वैरवैमनस्य का अवसान होता है। हमें अपनी श्रेष्ठ प्रज्ञा का प्रकाश उपलब्ध होता है, परमात्म-तत्त्व और निर्वाण से साक्षात्कार होता है। यह हमें हमारी चेतना की अंतिम ऊँचाई तक ले जाता है।
जिसने योग को निष्ठापूर्वक आत्मसात किया वह अंतिम आध्यात्मिक ऊँचाई को प्राप्त करता है। वह ऊँचाई जिसे कभी समाधि, कभी आत्मज्ञान, कभी बोधिसंबोधि, कभी कैवल्य और कभी पारलौकिक शक्ति का नाम दिया जाता है। कभी इसे परमात्म-तत्त्व या सर्वज्ञता का ज्ञान होना कहा जाता है।
पहली बात - जितना हम इसे समझेंगे, दूसरी बात - जितनी अधिक हमारे भीतर जिज्ञासा और उत्कंठा पैदा होगी, तीसरी बात - जितनी लगन से इसको प्राप्त करने के लिए, इसके परिणामों को उपलब्ध करने के लिए हम प्रयत्नशील होंगे, चौथी बात - जितना हम अपने लक्ष्य के प्रति दत्तचित्त रहेंगे, पाँचवीं बात - जितना हम इसमें अन्तर्लीन होंगे, ध्यानस्थ होंगे, ध्यान और ध्येय, ध्याता और ध्येय का भेद जब गिर जाएगा तब यह हमें हमारी हर ऊँचाई को उपलब्ध करवा सकता है। यदि यह उपलब्ध नहीं हो रहा है तो इसका अर्थ है - हमें बात अभी तक समझ में नहीं आई या अभी लगन लगी नहीं या भीतर में उत्कंठा और अभिलाषा जगी नहीं या अभी हमें अध्यात्म की आखिरी ऊँचाई प्राप्त करने से अधिक संसार का व्यामोह और मकड़जाल घेरे हए है। मैं कहा करता हूँ - जितनी वासना पत्नी को प्राप्त करने की होती है उतनी कामना और तमन्ना जब परमात्मा को पाने की होती है, तो परमात्मा का सान्निध्य हमारे आसपास ही होता है। यही कारण है कि जब मीराबाई को ज़हर का प्याला भी पीने को मिलता है तो वह चरणामृत मानकर पी जाती है और उसके लिए वह चरणामृत बन भी जाता है। ज़हर को अमृत बनाने के लिए मीरा बनना पड़ता है अन्यथा ज़हर अमृत नहीं बनता। मीरा के अन्तस में प्रभु की कामना थी तभी तो गिरधर उनके साथ सदा विद्यमान रहते थे। 136/
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