Book Title: Yoga
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 112
________________ और क्षय भी । परिणामत: व्यक्ति के पास जो ऊर्जा और ताक़त होनी चाहिए वह मिल नहीं पाती और विखंडन जारी रहता है और इंसान समय से पहले ही बूढ़ा हो जाता है । पाँचवाँ और अंतिम यम है - अपरिग्रह । अर्थात् असीमित परिग्रह करने की बजाय परिग्रह - वृत्ति पर अंकुश। जीवन में एक सीमा हो कि हम अपने पास अमुक वस्तुएँ अमुक मात्रा में ही रखेंगे। मकान, ज़मीन, वस्त्र, सोना आदि एक विशिष्ट सीमा तक ही अपने पास रखेंगे, शेष का त्याग कर देंगे। गरीबों को न भी दे सको तो कम-से-कम अपने परिवार में ही बाँट दो । किसी भी बहाने परिग्रह तो कम होगा । हमारे मोह और आसक्तियाँ बहुत हैं। इसके चलते दूसरों को न सही, परिजनों को ही दे दो ताकि तुम्हारा कुछ बोझ कम हो सके। हम संतों को देखो कहीं भी सो जाते हैं निश्चित होकर क्योंकि हमारे पास कुछ है ही नहीं कि कोई क्या ले जाएगा और तुम्हें टेंशन के कारण रातभर नींद नहीं आती । ऐसा हुआ गोरखनाथ जी अपने गुरु मत्स्येन्द्रनाथ जी के पास गए। वापसी में दोनों साथ ही आए । गुरु के पास सोने की ईंट थी। वह ईंट उन्होंने थैली में डालकर गोरखनाथ को पकड़ाई और कहा ले इसे पकड़ ले, इसमें थोड़ी चिंता है। ध्यान रखना, इसकी फ़िक्र रखना। दोनों साथ चल दिए। रात हो गई, एक स्थान पर विश्राम किया और सुबह पुनः चल पड़े। चलते-चलते मत्स्येन्द्रनाथ जी ने पूछा- बेटा, वह थैली संभालकर रखी हुई है न् ! उस फ़िकर की फिक्र की या नहीं? गोरखनाथ जी ने अब फ़िकर की ज़रूरत नहीं है क्योंकि जिसके कारण फ़िकर हो रही थी, उसे तो मैंने कुएं में डाल दिया। अब जब वह चीज़ ही नहीं रही तो किस बात की फ़िकर । कहा - की मोहासक्ति ही न रही तो वह चीज़ हम पर कैसे हावी हो सकती है ! जितनी आवश्यकता है उतना धन रखें - ओवर लोड परिग्रह न करें। अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति तो हमें करनी ही होगी। वस्त्रों की भी सीमा रखें। नया बनाएँ ज़रूर पर पुराने में से एक त्याग कर दें। एक संख्या तय कर लें कि आप इतने ही वस्त्र रखेंगे। उससे अधिक होने पर ज़रूरतमंदों को वितरित कर दें। जो आपके काम नहीं आते, पुराने फैशन के हो गए हैं, जिन्हें आप नहीं पहनते हैं उन्हें अवश्य ही बाँट दें। बहुत से ऐसे लोग हैं जिनके पास वस्त्र ही नहीं होते या जर्जर हो चुके होते हैं उन्हें दीजिए । अपरिग्रह कीजिए । त्याग करना है - परिग्रह परिणाम व्रत । अर्थात् परिग्रह पर अंकुश लगाएँ । खाना खाएँ तो विवेक रखें कि इतने द्रव्यों का ही उपयोग करेंगे इससे अधिक Jain Education International For Personal & Private Use Only 113 www.jainelibrary.org

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