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प्रत्येक व्यक्ति में कमियाँ और दोष होते हैं। कोई भी पूरी तरह दूध का धुला नहीं होता। लेकिन यदि हम कमियों और दोषों को ही गिनते-निकालते रह गए तो किसी का भी सम्मान और सदुपयोग नहीं कर पाएँगे क्योंकि गुण-दोष तो सभी में होते हैं । हाँ, अगर हम विशेषताओं पर ध्यान देंगे तो उन विशेषताओं को याद करके उसकी कमियों को क्षमा करके आगे बढ़ सकते हैं । यह हम पर है कि हम अच्छाइयों को मूल्य देते हैं या कमियों पर नज़र डालते हैं । सकारात्मक सोच और साधना-भाव में जीने वाला कमियों और दोषों को क्षमा कर विशेषताओं का सम्मान करता है। ऐसा करना सम्यक् दृष्टि पाना है, सम्यक्त्व धारण करना है।
साधना की दृष्टि बहुत गहरी होती है, बाह्य उथल-पुथल में उसे नहीं देखा जा सकता। साधना की गहराई को समझने वाले ही समझ सकते हैं। यदि वह किसी के प्रति टिप्पणी करेगा तो उसे अहसास रहेगा कि उसने ग़लत किया और उसे ऐसा नहीं करना चाहिए था। जो ग़लत है उसका समर्थन न करें व अच्छाइयों का सम्मान करना सीखें। जब भी हम साधना करें तो यह बोध रखें कि -
जब मैं ध्यान कर रहा हूँ, साधना कर रहा हूँ, तब परिवार, समाज, व्यापार संबंधी बातों को अपने दिल से हटाकर ध्यान के लिए बैठ रहा हूँ। अगर ध्यान करते हुए बार-बार उनकी याद आती है तो हम आतापी होकर, संप्रज्ञाशील होकर, आत्मस्मृतिमान होकर नहीं बैठे हैं, बस केवल बैठ भर गए हैं। हमें भान होना चाहिए कि हम अपने चित्त की शांति और निर्मलता के लिए ध्यान कर रहे हैं। इसके अलावा सब मन की खटपट है । यादें आना, उनके प्रति क्रियाशील होना मन की खटपट है। ध्यान करने वाला पहले चरण में ही शांति के द्वार से भीतर प्रवेश करता है। अपनी ज्ञान और बोध-दशा को बरकरार रखते हुए ध्यान के आसन पर आसीन हो रहा है। तब वह अपने भीतर की प्रत्येक वृत्ति के प्रति, प्रत्येक उदय-विलय के प्रति पल-पल जागरूक रहता है। साथ ही यह बोध भी रखता है कि मैं अपने भीतर की शांति, मौन और साक्षात्कार के लिए योग और ध्यान कर रहा हूँ।
जिनके भीतर यह बोध नहीं होता उन्हें हर बार प्राणायाम करके अपने चित्त को लयलीन बनाना पड़ता है। जिन्हें बोध गहरा होता है वे सहज में ही पलकें खुली हों या बंद, वे हर वक्त अपने चित्त की शांति के प्रति जागरूक रहते हैं। बोध, ज्ञानदशा, होशदशा, जीवन के दैनंदिनी कार्यों के प्रति हमेशा सजग रहते हैं। अगर पसीना भी बह रहा है तब भी उसकी प्रत्येक बूंद के प्रति वह जागरूक है कि यह है शरीर का स्वभाव। साधक का पहला और आखिरी चरण है बोध । बोध रखने पर ध्यान के पहले भी और ध्यान के बाद भी अपनी वृत्तियों का निरोध करने में सफल हो 58
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