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अज्ञान और अहंकार पर कैसे पाएँ विजय
मेरे प्रिय आत्मन्,
एक राजकुमार ने श्री भगवान के सान्निध्य में संन्यास ग्रहण किया। संतों को आहारचर्या के लिए स्वयं ही जाना होता है। वह भिक्षु भी भरी दोपहरी में नंगे पाँव चलने को उद्यत हुआ। थोड़ी दूर चलते ही उसके पांव जलने लगे और भूख-प्यास भी सताने लगी। नगर के मध्य पहुँचा ही था कि उसके मन में विचार उमड़ने लगे कि आज मैं भिक्षु बन गया तो घर-घर में आहारचर्या के लिए जाना पड़ता है। अगर मैं राजमहल में होता तो अनेक सेवक मेरे आहार की व्यवस्था कर रहे होते।
संतों के द्वारा आहार लेने स्वयं जाना उनके अहंकार को तोड़ने का सीधा सरल तरीक़ा है। इंसान का स्वभाव अहंकार और अहंभाव से घिरा रहता है। इसीलिए भारतीय संतों में आहार-चर्या की परंपरा आई। संत चाहे कितने भी बड़े कुल का क्यों न हो वह छोटे और बड़े दोनों कुलों में समान भाव से जाकर आहार-चर्या करे ताकि उनका अहंभाव टूटे।
संत भिक्षु अपने राजपरिवार और सेवकों के संबंध में सोच ही रहा था, उसके मन में तरह-तरह के संकल्प-विकल्प, चित्त में क्लेश और संक्लेश उभर रहे थे तभी
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