Book Title: Yoga
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 75
________________ जाए पता नहीं चलता। कब क्या हो जाए कोई नहीं जानता । अपने कुल, ज्ञान, गोत्र का अभिमान न करें। विनम्रता होनी चाहिए। विनम्रता जीवन का ऐसा रक्षा कवच है जिसके द्वारा अनेकानेक संकटों को काटा जा सकता है। जो नमता है वह सभी को प्रिय लगता है । इसीलिए तो कहा है - केवल बड़ा होने से कुछ नहीं होता, गुण होना चाहिए। ज्यों-ज्यों गुणों में परिपक्वता आती है, विनम्रता का समावेश होता है, अहंभाव टूटता है त्यों-त्यों इंसान और-और झुकता है । जो नहीं झुकता, वह भूसा रह जाता है। अधिक दानों वाला पौधा झुक जाता है । भूसा हमेशा खड़ा रहता है। जो विनम्र है उसने जीवन के पाठ पढ़े हैं । बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर | पंछी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर ॥ एक समय की बात है : हमने दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति को कुछ विशिष्ट कार्य के लिए मिलने का संदेशा पहुँचाया। उन्होंने कहा गुरुजन मेरे यहाँ आए यह शोभा नहीं देता मैं स्वयं ही दोपहर में चार बजे उनकी सेवा में उपस्थित हो जाऊँगा । हम लोग उनसे पहले कभी मिले नहीं थे, यह पहली मुलाक़ात होने वाली थी। शाम को चार बजे के लगभग एक वृद्ध सज्जन आए। हमारे आसपास अन्य लोग बैठे हुए थे। ज्ञान-चर्चा चल रही थी। तभी देखा कि दरवाजे में प्रविष्ट होकर उन्होंने कोने में रखी कुर्सी उठाई और लेकर आने लगे। मैंने अपने पास बैठे हुए एक बच्चे को संकेत दिया कि वह कुर्सी ले आए। धीरे-धीरे चलते हुए वे हमारे पास आए और कहने लगे, 'प्रभु, अगर आपको आपत्ति न हो और आपकी आज्ञा हो तो मैं कुर्सी पर बैठ जाऊँ घुटनों की तकलीफ़ के कारण ज़मीन पर बैठने में असमर्थ हूँ । ' मैंने कहा - प्रभु, आप यह क्या कह रहे हैं, कोई भी ऊपर तभी बैठता है जब उसे पाँवों में असुविधा होती है अन्यथा कोई गुरुजनों के सामने ऊपर बैठना पसंद नहीं करता । आप आराम से कुर्सी पर विराजिये । वे बैठ गए और हम अपनी ज्ञानचर्चा में लग गये। आधा - पौन घंटे बाद जब सब चले गये तब मैंने उन बुजुर्ग महानुभाव से पूछा - फरमाइये दादाजी, आपकी क्या सेवा की जाए? मेरा इतना कहना था कि उन्होंने कहा - प्रभु, आपने ही तो याद किया था । हमने ? मैंने सोचा । उन्होंने कहा - आपने मेरे घर संदेशा पहुँचाया था और मैंने चार बजे आने का समय दिया था। मुझे ख़याल आया। मैंने पूछा - क्या आप कुलपति महादेय हैं । 'जी, हाँ' उन्होंने कहा । 76| Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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