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नहीं तो हम लोगों से एक मच्छर का काटना भी बर्दाश्त नहीं हो पाता और उन्होंने अंगीठी बर्दाश्त कर ली; धन्य हैं। ऐसे सिद्ध संत और भेद विज्ञानियों को धन्य है, ऐसे आत्मज्ञानी संत-पुरुषों को धन्य है । ऐसी ऊँचाई पर हम भी कभी पहुँचें।
भगवान महावीर ने कहा है चार भावनाएँ ध्यान से पहले भी भाओ, ध्यान के बाद भी भाओ- अनित्य, अशरण, अन्यत्व और एकत्व। अनित्य अर्थात् संसार का प्रत्येक पदार्थ क्षणभंगुर है, हर संबंध टूट जाने वाला है। अशरण- संसार में कोई किसी का शरणभूत नहीं होता। सारे नदी-नाव संयोग हैं। अन्यत्व - जो अपने से भिन्न है उसे भिन्न देखो, शरीर हमसे अलग है, इसे भिन्नत्व के बोध में लाओ। एकत्व- जीव अकेला आता है और अकेला जाता है। गीता में कृष्ण कहते हैं - हे जीव! बार-बार सोचो कि तुम अपने साथ क्या लाए थे और जाने के बाद क्या साथले जाओगे। जीव कुछ भी साथ में लाता ले जाता नहीं है - इसे बोध में चिंतन में लाना है। इस पर मनन करो, मनन से मार्ग मिलता है।
साधक के लिए दो चीजें ज़रूरी हैं - एक ध्यान, दूसरा मनन।अपने बोध से हर चीज़ को जानो और उसका चिंतन-मनन करो। एक दिन में कोई सिद्ध योगी नहीं बनता, चिंतन-मनन करते-करते, ध्यान-साधना करते हुए, होश-बोधपूर्वक जीते हुए धीरे-धीरे कमल की पंखुरियों की तरह मुक्ति की ओर चार क़दम बढ़ाने लगता है। अज्ञान है इसलिए हम मोह-मूर्छा में उलझे हुए हैं। अज्ञान के कारण व्यसन करते हैं, अज्ञानतावश ही बार-बार एक ही पत्थर से ठोकर खाते हैं । अज्ञानता के कारण 'मैं' और 'मेरा' नज़र आता है। सभी जानते हैं क्रोध बुरा है, झूठ, चोरी आदि प्रपंच बुरे हैं लेकिन भीतर का अज्ञान और अविद्या इतनी गहरी है कि बाहर का ज्ञान काम नहीं आ पाता। हम सभी पर अविद्या और अज्ञान हावी हैं, आत्मभाव गौण है, शरीर-भाव मुख्य है। जीवन का भाव गौण है जगत का भाव मुख्य है। खुद में प्रतिष्ठित होने का भाव कम है, जगत में प्रतिष्ठित होने का भाव ज़्यादा है। ख़ुद को खुद से प्रभावित करने का भाव कम, दूसरों को प्रभावित करने का भाव ज़्यादा है।
__ जब तक अविद्या और अज्ञान हावी हैं तब तक यही संसार सच है। यहाँ के सुख ही सुख हैं, यहाँ की चीजें ही हमें अपने आधिपत्य के अधीन नज़र आती हैं। वेदों ने कहा है - तमसो मा ज्योतिर्गमय, असतो मा सद्गमय, मृत्योर्मा अमृतं गमयहम प्रार्थना करें - हे प्रभो! हमें अंधकार से प्रकाश की ओर ले चल, अविद्या से विद्या की ओर ले चल, असत्य से सत्य की ओर ले चल, मृत्यु से अमृत की ओर ले चल। गायत्री मंत्र भी यही कहता है- हे ईश्वरीय पराशक्ति तू हम अज्ञानी बालकों को जो
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