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वृत्ति है बीज की तरह। तीन शब्द हैं - वृत्ति, प्रवृत्ति और निवृत्ति । वृत्ति की प्रेरणा से प्रवृत्ति होती है । वृत्ति और प्रवृत्ति के अंतर्द्वद्व से ऊपर उठ जाने का नाम निवृत्ति है ।
वृत्तियाँ दो प्रकार की होती हैं- क्लेशकारी और अक्लेशकारी । क्लेशकारी वृत्तियाँ वे होती हैं जिनके उदय से हमारे चित्त में क्लेश, दुःख और संत्रास मिलता है। हम चिंता और तनाव में आर्त ध्यान और रौद्र ध्यान से घिर जाते हैं यह हैं क्लेशकारी वृत्तियाँ । क्लेशकारी वृत्तियाँ भी पाँच प्रकार की होती हैं।
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पहली है : अविद्या । यानी सत्य को सत्य न जानना, असत्य को असत्य न जानना बल्कि सत्य को असत्य और असत्य को सत्य जान लेने का नाम ही अविद्या है। शरीर को आत्मा और आत्मा को शरीर मान लेने का नाम ही अविद्या है। शरीर को शरीर मानो और आत्मा को आत्मा जानो- इस ज्ञान का नाम विद्या है। शरीर और आत्मा भिन्न तत्त्व हैं- भिन्न घटक हैं- यह वह ध्यान के द्वारा ध्यान के समय जाने । काया की प्रेक्षा- अनुप्रेक्षा करते हुए इस भेद - विज्ञान को जाने । व्यवहार में तो हम कह देते हैं कि हम वस्तुओं से, वस्त्रों से या मकान, घर, दुकान से अलग हैं पर क्या वाकई में अलग हो पाते हैं? जब भी बोलेंगे तो 'मैं' और 'मेरा' जुड़ ही जाएगा। कहने को तो अलग हैं, पर 'मैं' और 'मेरे' का आरोपण, हर वस्तु, हर जगह, आँगनस्थान के प्रति बना रहता है। ध्यान और योग हमें यह सिखाता है और प्रक्रिया भी देता है कि सबसे स्वयं को अलग देखो। अभी शरीर और आत्मा की बात ही नहीं है । पहले कपड़ों से स्वयं को अलग देखो। मेरे का आरोपण होने के कारण 'मेरा कपड़ा', अन्यथा मेरा कपड़ा कहाँ है ? कपड़ा तो सूत का है । हक़ीकत में इसे अपने बोध और ज्ञान में जानो कि कपड़ा मुझसे अलग है। साधक जब ध्यान में बैठे तो जाने कि जहाँ वह बैठा है वह ज़मीन पहले भी थी और उसके जाने के बाद भी ज़मीन वहीं रहेगी। यह ज़मीन मेरी नहीं है, ज़मीन सिर्फ ज़मीन है। ममत्व के आरोपण के कारण मेरी दिखाई देती है, वरना मेरा कुछ भी कहाँ है। ध्यान करने वाला इस बोध को रखता है कि सब कुछ मुझसे अलग है। यह भेद - विज्ञान ही व्यक्ति को अविद्या से विद्या की ओर लेता है। जैसे हंस नीर-क्षीर का विवेक रखता है वैसे ही साधक, ध्यानी, योगी, जागरूक व्यक्ति हर चीज़ को ज्ञान में अपने से भिन्न देखता है । ममत्व नहीं होता, इसलिए वस्तु का, स्थिति का, परिस्थिति का, व्यक्ति का, पदार्थ का प्रभाव नहीं पड़ता। दोनों स्थितियों में सहज रहता है । आसक्ति नहीं रह पाती, वृत्तियों का दबाव नहीं बन पाता और इसी तरह वृत्तियाँ क्षीण होती हैं । इसलिए वस्तुओं को भिन्न देखने का अभ्यास करो । जब वस्तुएँ भिन्न नज़र आने लगेंगी तब माता-पिता, भाई-बहिन, पत्नी-बच्चे इनसे भी स्वयं को भिन्न देखने का अभ्यास करने लग जाएँगे। तब
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