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सकेंगे।घंटा दो घंटा ध्यान कर लेने भर से कोई मक्त नहीं हो सकता। आप जानते हैं महावीर को भी साढ़े बारह वर्ष तक तपस्या करनी पड़ी, बुद्ध भी छः वर्ष तक लगातार तपस्या करते रहे। हम क्या करते हैं? उन्होंने तो अपना सब कुछ होम कर दिया, सतत लगे रहे। हम तो योग की बातें ज़्यादा करते हैं और वे लोग योग ज़्यादा करते थे। हम तो दो बैठक करके ही खुद को ध्यानी और योगी समझने लगते हैं। उन्होंने ध्यानयोग के लिए अपने प्राणों को खपा दिया। उन्होंने केवल ध्यान योग में प्रवेश नहीं किया, वे उसमें डूब गए, खो गए, लीन हो गए। और तब जो प्रकट हुआ वह योग नहीं, अनुत्तर योग था, बोध नहीं संपूर्ण संबोधि था। उनके पास केवल खुद का ही नहीं, चराचर का संपूर्ण ज्ञान था। ख़ुद की ही नहीं, सारे जगत की समस्याओं का समाधान था।
योग कोई दो-चार बैठकों से नहीं सधता। जब हम इसे धूप और छाया की तरह अपने जीवन से जोड़ते हैं, अपने तन-मन की हर तरंग को योगमय बनाते हैं, तभी समाधि और संबोधि का प्रकाश हमारे भीतर साकार होता है। योग हमें अभ्यास
और वैराग्य तो देता ही है, इन दोनों को साधने का मार्ग भी देता है। हमें अपने व्यावहारिक जीवन में भी योग का बोध बनाए रखना है कि मुक्ति मेरा लक्ष्य, निर्वाण मेरा लक्ष्य है। मुझे अपने लक्ष्य की ओर बढ़ना है। वृत्तियों से मुक्त होना है, न कि इनमें उलझे रहना है। हम अपनी ओर से भरपूर प्रयास करें। ग़लती होना स्वाभाविक है, लेकिन उसे बार-बार दोहराएँ नहीं, उसे धो डालें। विरक्ति का भाव रखें। बोध
और होश को बनाए रखें। सतत स्मरण रखें कि हम योग और ध्यान के प्रति निष्ठाशील हैं। हमारे क़दम सदा अध्यात्म के प्रकाश की ओर हों।
आज के लिए इतना ही,
नमस्कार।
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