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गया वैसे वैसे वह अन्तर से दूर हटता गया है। यह आत्मा को पीछे छोड कर वहत आगे बढ गया है। अब वह वापिस लौटना चाहता है-प्रतिक्रमण चाहता है, परन्तु प्रतिक्रमण उमे कोन सिखाए ? प्रतिक्रमण तो जन सस्कृति के सिवा अन्यत्र कही है ही नही । प्रतिक्रमण की पूर्णता ध्यान के विना नही हो सकती, क्योकि ध्यान अन्दर की गहराइयो मे ले जाने की सफल प्रक्रिया है। जो वृक्ष बहुत ऊचा उठना चाहता है उसे अपनी जडे पृथ्वी के भीतर -बहुत गहरे ले जानी होती हैं, जिम वृक्ष की जड़े जितनी गहरे मे जाएगी वह उतना ही अधिक आकाश मे ऊचा उठ सकेगा।
मनुष्य भी यदि ऊपर उठना चाहेगा तो उसे ध्यान के द्वारा अन्तर की गहराइयों से सम्बन्ध जोडना होगा, तभी वह सिद्धत्व की-उचाइयो तक पहुंचने का अधिकारी बन सकता है। यही कारण है कि ध्यानयोग को यहा प्रमुखता दी गई है।
वस्तुत ध्यान मानव का स्व-भाव है, इससे मनुप्य को 'होने' का . अपने अस्तित्व को जानने का सुख प्राप्त होता है, किन्तु व्यान ऐसी आध्यात्मिक प्रक्रिया है जिसे करके ही जाना जा सकता है, इसे जानकर किया नहीं जा सकता।
विश्व के सभी सम्प्रदायो ने जो ध्यान की विधिया बताई है उनकी सख्या ११२ वताई गई है। एक सौ बारह ध्यान के विशेष प्रकार हैं। देश कोल एव पात्र की योग्यता को देखकर वे शिष्यो को सिखाए जाते हैं।
भगवान बुद्ध ने योग के स्थान पर समाधि शब्द का प्रयोग किया है और उनकी दृष्टि मे हृदय का सशय-रहित होना और मन, वचन एव काया का सन्तुलन ही योग अथवा ध्यान है। मन, वचन और काया का सन्तुलन होने पर ही चित्त-स्थैर्य प्राप्त होता अठारह ।
[योग - एक चिन्तन