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जैन सस्कृति के 'सिहो' की अोर स्पष्ट संकेत कर रहा है।
इसी विपय को और स्पष्ट करते हुए योग-दगंन बहता है "तत्र निरतिशय सर्वनबीजम् (१२) ईश्वर मे निरतिशय ज्ञान है, जितना ज्ञान हो सकता है वह सब उसमे होता है, अत उमे सर्वन कहते है । क्या 'सर्वन' अरिहन्त का-तीर्थ हर का परिचायक प्रसिद्ध शब्द नही है।
'अन्तराय' यह जैन सम्कृति का जाना-पहचाना गई है । समाधि मे अन्तराय क्या है ? यह बताते हुए पतजलि ने .०वें सूत्र मे व्याधि, स्त्यान (कर्म-असामर्थ्य), सशय, प्रमाद, प्रालस्य अविरति, भ्रान्ति-दर्जन, अलब्ध भूमिकत्व (चिन की अस्थिरता) अनवस्थितत्त्व इन नी को अन्तराय अर्थात् विघ्न-कारक बताया है। 'योग एक चिन्तन का अध्ययन करने पर स्पष्ट होता है कि जैन सस्कृति ने इसी प्रकार के अनेक अवगुणो को साधना में विघ्न करने वाले कहा है।
'वीतराग-विपय वा चित्तम्"-इस सूत्र का 'वीतराग' शब्द जैन संस्कृति की ही तो देन है, क्योकि तीर्थङ्कर न राग मे रहते हैं, न विराग मे रहते है, वे दोनो से मुक्त होते हैं, अत उन्हे वीतराग कहा जाता है। वीतराग का ध्यान चित्त का प्रसादन करता है-उसमे साधना का उत्साह जागृत करता है, क्या यह जैन सस्कृति ही नही बोल रही है।
साधन-पाद में पतजलि ने योग की सिद्रि के लिये जो साधन वताए हैं वे हैं-'तप, स्वाध्याय, ईश्वर अर्थात् सिद्धो का ध्यान ।
द्वितीय पाद के तीसवे सूत्र में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह इन्हे यम कहा गया है और इकत्तीसवे सूत्र मे इन्हेसोलह]
[ योग : एक चिन्तन