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वत्तीस यौगो की व्याख्या मात्र है। योग-दर्शन का विषय-प्रतिपादन इसका साक्षी है। योगावस्था मे क्या होता है ? पतंजलि उत्तर देते है-"तदा द्रष्टु स्वरूपेऽवस्थानम्-तव द्रष्टा अर्थात् प्रात्मा अपने स्वरूप मे अवस्थित हो जाता है । स्वरूपावस्थान ही तो जैन सस्कृति का प्रमुख स्वर है।
चित्त-वृत्ति यो के निरोध का उपाय क्या है ? पतजलि के शब्दो मे "अभ्यासवैराग्याभ्या तन्निरोध..(१।१२) । अभ्यास और वैराग्य से चित्तवृत्तियो का निरोध होता है। यह अभ्यास क्या है (तत्र स्थितौ यत्नोऽभ्यास १ । १३)-यतना ही अभ्यास है, यह यतना शब्द और यतना की साधना की प्रमुखता जैन सस्कृति का ही उद्घोष है । 'वैराग्य' तो जिन-सस्कृति का आधार भूत तत्त्व है।
योग-दर्शन उस असम्प्रज्ञात समाधि को प्रमुखता देता है जिसमें आत्म-अवस्थिति और मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस असम्प्रजात समाधि की ओर यात्रा सवेग से प्रारम्भ होती है। सवेग जैन संस्कृति का अपना शब्द है । पताल भी कहते है तीव्रसवेगानामासन्न (११ २१) तीन सवेगवालो को असम्प्रज्ञात समाधि सुलभ, हो जाती है। ।
__ योग-दर्शन ने असम्प्रज्ञात समाधि की प्राप्ति के लिये 'ईश्वरप्रणिधानाद्वा' कह कर 'ईश्वर के ध्यान को कारण माना है, परन्तु कोई ईश्वर को ब्रह्मा, विष्णु यो शिव जैसा देवता न मान ले, यह सोचकर अंगले ही सूत्र में स्पष्टीकरण करते हुए पतञ्जलि कहते हैं-"क्लेश-कर्म-विपाकाशयरपरामृष्ट पुरुप- विशेप ईश्वर."-जो भी विशेष पुरुप-महापुरुप क्लेशो से दूर हो चुका है, कर्म और कर्म के सस्कारो से मुक्त हो चुका है वही ईश्वर है-यह-ईश्वर योग एक चिन्तन ]
[पन्द्रह