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साधन-चतुख्य 'ब्रह्म सत्य है और जगत् मिथ्या है, ऐसा जो निश्चय है वही नित्यानित्य-वस्तु-विवेक कहलाता है।
तद्वैराग्यं जुगुप्सा या दर्शनश्रवणादिभिः ॥२१॥ देहादिब्रह्मपर्यन्ते बनित्ये भोगवस्तुनि ।
दर्शन और श्रवणादिके द्वारा देहसे लेकर ब्रह्मलोकपर्यन्त सम्पूर्ण अनित्य भोगपदार्थोंमें जो घृणाबुद्धि है वही वैराग्य' है ।
विरज्य विषयत्रातादोषदृष्टया मुहुर्मुहुः ॥२२॥ स्वलक्ष्ये नियतावस्था मनसः शम उच्यते ।
बारंबार दोष-दृष्टि करनेसे विषय-समूहसे विरक्त होकर चित्तका अपने लक्ष्यमें स्थिर हो जाना ही शम' है । m
विषयेभ्यः परावर्त्य स्थापनं स्वस्वगोलके ॥२३॥ उमयेषामिन्द्रियाणां स दमः परिकीर्तितः। बाह्यानालम्बनं वृत्तेरेषोपरतिरुत्तमा ॥२४॥
कर्मेन्द्रिय और ज्ञानेन्द्रिय दोनोंको उनके विषयोंसे खींचकर अपने-अपने गोलकोंमें स्थिर करना 'दम' कहलाता है । वृत्तिका बाह्य विषयोंका आश्रय न लेना यही उत्तम ‘उपरति' है ।
सहनं सर्वदुःखानामप्रतीकारपूर्वकम् । चिन्ताविलापरहितं सा तितिक्षा निगद्यते ॥२५॥
चिन्ता और शोकसे रहित होकर बिना कोई प्रतिकार किये सब प्रकारके कष्टोंका सहन करना तितिक्षा' कहलाती है।
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