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विवेक-चूडामणि तिरोभूते खात्मन्यमलतरतेजोवति पुमा
- ननात्मानं मोहादहमिति शरीरंकलयति । ततः कामक्रोधप्रभृतिभिरमुंबन्धनगुणैः
परं विक्षेपाख्यारजस उरुशक्तिर्व्यथयति ॥१४२॥ अति निर्मल तेजोमय आत्मतत्त्वके तिरोभूत ( अदृश्य ) होनेपर पुरुष अनात्मदेहको ही मोहसे मैं हूँ' ऐसा मानने लगता है । तब रजोगुणकी विक्षेप नामवाली अति प्रबल शक्ति काम-क्रोधादि अपने बन्धनकारी गुणोंसे इसको व्यथित करने लगती है। महामोहग्राहग्रसनगलितात्मावगमनो
धियो नानावस्थाः स्वयमभिनयंस्तद्गुणतया । अपारे संसारे विषयविषपूरे जलनिधौ निमज्ज्योन्मज्ज्यायं भ्रमति कुमतिःकुत्सितगतिः॥१४३॥
तब यह नाना प्रकारकी नीच गतियोंवाला कुमति जीव विषयरूपी विषसे भरे हुए इस अपार संसार-समुद्रमें डूबता-उछलता महामोहरूप ग्राहके पंजेमें पड़कर आत्मज्ञानके नष्ट हो जानेसे बुद्धिके गुणोंका अभिमानी होकर उसकी नाना अवस्थाओंका अभिनय ( नाट्य ) करता हुआ भ्रमता रहता है। भानुप्रभासाजनिताभ्रपक्ति
__ तिरोधाय विज़म्भते यथा । आत्मोदिताहफूतिरात्मतत्वं
तथा तिरोधाय विजम्भते स्वयम् ॥१४४॥
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