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विवेके धूममणि
'वह देवदत्त यह है' इस वाक्यमें [ 'वह' शब्दका परोक्षत्व और 'यह' शब्दका अपरोक्षत्व इन दोनों ] विरुद्ध धर्मोका बाध करके जिस प्रकार देवदत्तकी एकता ही बतलायी जाती है, उसी प्रकार 'तत्त्वमसि' इस वाक्यमें [ 'तत्' पदके वाच्य ईश्वरकी उपाधि 'माया' और 'त्वं' पदके वाच्य जीवकी उपाधि अन्तःकरण - इन ] दोनोंके विरुद्ध धर्मोंका बाध करके [ शुद्ध चैतन्यांशकी ] एकता कही जाती है।
संलक्ष्य चिन्मात्रतया सदात्मनो
रखण्डभावः परिचीयते बुधैः । एवं महावाक्यशतेन कथ्यते
ब्रह्मात्मनोरैक्यमखण्डभावः ॥ २५२ ॥
इस प्रकार लक्षणाद्वारा जी
जीवात्मा और परमात्माके चेतनांशकी एकताका निश्चय कर बुद्धिमान् जन उनके अखण्ड भावका परिचय ( ज्ञान ) प्राप्त करते हैं । ऐसे ही सैकड़ों महावाक्योंसे ब्रह्म और आत्माकी अखण्ड एकताका स्पष्ट वर्णन किया गया है ।
ब्रह्म-भावना
अस्थूलमित्येतदस निरस्य
सिद्धं स्वतो व्योमवदप्रतर्क्यम् ।
यतो मृषामात्रमिदं प्रतीतं
ब्रह्माहमित्येव
जहीहि यत्स्वात्मतया गृहीतम् । विशुद्धबुद्धया विद्धि स्वमात्मानमखण्डबोधम् ॥ २५२॥
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