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विवेक-चूडामणि
ब्रूते जो नित्य इति श्रुतिः स्वयं
तत्प्रत्यगात्मा सदसद्विलक्षणः ॥ २९५ ॥
अहंपदार्थ तो अहंकार आदिका साक्षी है, क्योंकि उसकी सत्ता सुषुप्ति में भी देखी जाती है । स्वयं श्रुति भी उसे 'अजो नित्यः' - ऐसा कहती है । अतः वह प्रत्यगात्मा है और सत्-असत् से विलक्षण है ।
विकारिणां
सर्वविकारवेत्ता नित्योऽविकारो भवितुं समईति ।
स्फुटं
मनोरथस्वप्नसुषुप्तिषु
wwwमेतयोः ॥२९६॥ अहंकार आदि विकारी वस्तुओंके समस्त विकारोंको जाननेवाला नित्य तथा अविकारी ही होना चाहिये । मनोरथ, स्वप्न और सुषुप्ति-कालमें इन स्थूल सूक्ष्म दोनों शरीरोंका अभाव बार-बार स्पष्ट देखा गया है [अतः ये 'अहंपदार्थ आत्मा' कैसे हो सकते हैं ? ]
अतोऽभिमानं त्यज मांसपिण्डे पिण्डाभिमानिन्यपि बुद्धिकल्पिते ।
कालत्रयाबाध्यमखण्डबोधं
ज्ञात्वा स्वमात्मानमुपैहि शान्तिम् ॥ २९७॥
इसलिये इस मांस-पिण्ड और इसके बुद्धि-कल्पित अभिमानी जीवमें अहंबुद्धि छोड़ो और अपने आत्माको तीनों कालोंमें अबाधित और अखण्ड ज्ञानस्वरूप जानकर शान्ति-लाभ करो 1
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