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विवेक-चूडामणि क्रियान्तरासक्तिमपास कीटको
ध्यायन्यथालिं बलिभावमृच्छति । तथैव योगी परमात्मतत्त्वं
ध्यात्वा समायाति तदेकनिष्ठया ॥३६०॥ जिस प्रकार अन्य समस्त क्रियाओंकी आसक्तिको छोड़कर केवल भ्रमरका ही ध्यान करते-करते कीड़ा भ्रमररूप हो जाता है उसी प्रकार योगी एकनिष्ठ होकर परमात्मतत्त्वका चिन्तन करतेकरते परमात्मभावको ही प्राप्त हो जाता है। . अतीव सूक्ष्म परमात्मतत्वं
न स्थूलदृष्टया प्रतिपत्तुमर्हति । समाधिनात्यन्तसुसूक्ष्मवृत्त्या ndi.com
ज्ञातव्यमारतिशुद्धबुद्धिभिः ॥३६१॥ परमात्म-तत्त्व अत्यन्त सूक्ष्म है, उसे स्थूल दृष्टिसे कोई भी प्राप्त नहीं कर सकता, इसलिये अति शुद्ध बुद्धिवाले सत्पुरुषोंको उसे समाधिद्वारा अति सूक्ष्मवृत्तिसे जानना चाहिये । यथा सुवर्ण पुटपाकशोधितं
. त्यक्त्वा मलं स्वात्मगुणं समृच्छति । तथा मनः सत्त्वरजस्तमोमलं
ध्यानेन सन्त्यज्य समेति तत्त्वम् ॥३६२॥ जिस प्रकार [ अग्निमें ] पुटपाक-विधिसे शोधा हुआ सोना सम्पूर्ण मलको त्याग कर अपने स्वाभाविक खरूपको प्राप्त कर लेता है उसी प्रकार मन ध्यानके द्वारा सत्त्व-रज-तमरूप मलको त्याग कर आत्मतत्त्वको प्राप्त कर लेता है।
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