Book Title: Vivek Chudamani
Author(s): Shankaracharya, Madhavanand Swami
Publisher: Advaita Ashram

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Page 432
________________ १७१ निरल उपदेशका उपसंहार न खिद्यते नो विषयैः प्रमोदते न सजते नापि विरज्यते च । खमिन्सदा क्रीडति नन्दति स्वयं निरन्तरानन्दरसेन तृप्तः ॥५३७॥ विषयोंके प्राप्त होनेपर वह न दुखी होता है, न आनन्दित होता है, न उनमें आसक्त होता है और न उनसे विरक्त होता है। वह तो निरन्तर आत्मानन्दरससे तृप्त होकर स्वयं अपनेआपमें ही क्रीडा करता और आनन्दित होता है । क्षुधां देहव्यथां त्यक्त्वा बालः क्रीडतिवस्तुनि । तथैव विद्वान् रमते निर्ममो निरहं सुखी ॥५३८॥ जिस प्रकार खिलौना मिलनेपर बालक अपनी भूख और शारीरिक व्यथाको भी भूलकर उससे खेलनेमें लगा रहता है उसी प्रकार अहंकार और ममतासे शून्य होकर विद्वान् अपने आत्मामें आनन्दपूर्वक रमण करता रहता है। चिन्ताशून्यमदैन्यभैक्षमशन पानं सरिद्वारिषु स्वातन्त्र्येण निरङ्कुशा स्थितिरभीनिद्रा श्मशाने वने । वस्त्रं क्षालनशोषणादिरहितं दिग्वास्तु शय्या मही सञ्चारो निगमान्तवीथिषु विदां क्रीडा परे ब्रह्मणि ॥ ब्रह्मवेत्ता विद्वान्का चिन्ता और दीनतारहित भिक्षान्न ही भोजन तथा नदियोंका जल ही पान होता है। उनकी स्थिति खतन्त्रतापूर्वक और निरङ्कुश ( मनमानी ) होती है। उन्हें किसी प्रकारका भय नहीं होता, वे वन अथवा श्मशानमें मुखकी नींद http://www.Apnihindi.com

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