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विवेक-चूडामणि सोते हैं । धोने-सुखाने आदिकी अपेक्षासे रहित दिशा [ अथवा वल्कलादि ] ही उनके वस्त्र हैं, पृथिवी ही बिछौना है, उनका आना-जाना वेदान्त-वीथियोंमें ही हुआ करता है और परब्रह्ममें ही उनकी क्रीडा होती है। विमानमालम्ब्य शरीरमेतद्
भुनक्त्यशेषान्विषयानुपस्थितान् । परेच्छया बालवदात्मवेत्ता
योऽव्यक्तलिङ्गोऽननुषक्तबायः ॥५४०॥ वह आत्मज्ञानी महापुरुष इस शरीररूप विमानमें बैठकर अर्थात् अपने सर्वाभिमानशून्य शरीरका आश्रय लेकर दूसरोंके द्वारा उपस्थित किये समस्त विषयोंको बालकके समान भोगता है। किन्तु वास्तवमें वह प्रकट-चिह्नरहित और बाह्य पदार्थोंमें आसक्तिरहित होता है। दिगम्बरो वापि च साम्बरो वा
__ त्वगम्बरो वापि चिदम्बरस्थः । उन्मत्तवद्वापि च बालवद्वा
पिशाचवद्वापि चरत्यवन्याम् ॥५४१॥ चैतन्यरूप वस्त्रसे युक्त वह महाभाग्यवान् पुरुष वस्त्रहीन, वस्त्रयुक्त अथवा मृगचर्मादि धारण करनेवाला होकर उन्मत्तके समान, बालकके समान अथवा पिशाचादिके समान स्वेच्छानुकूल भूमण्डलमें विचरता रहता है।
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