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विवेक-धूरामणि
सदात्मैकत्वविज्ञानदग्धाविद्यादिवर्मणः ।
अमुष्य ब्रह्मभूतत्वाद् ब्रह्मणः कुत उद्भवः ॥५६९॥ - ब्रह्म और आत्माके एकत्व-ज्ञानरूप अग्निसे अविद्याजन्यः शरीरादि उपाधिके दग्ध हो जानेपर तो यह ब्रह्मवेत्ता ब्रह्मरूप ही हो जाता है और ब्रह्मका फिर जन्म कैसा ?
मायाक्लप्सौ बन्धमोक्षो न स्तः खात्मनि वस्तुतः। यथा रजौ निष्क्रियायां सभासविनिर्गमौ ॥५७०॥
बन्धन और मोक्ष मायासे ही हुए हैं; वे वस्तुतः आत्मामें नहीं हैं, जैसे क्रियाहीन रज्जुमें सर्प-प्रतीतिका होना न होना भ्रममात्र है, वास्तवमें नहीं। . ,
आवृतेः सदसत्त्वाभ्यां वक्तव्ये बन्धमोक्षणे । नावृतिब्रह्मणः काचिदन्याभावादनावृतम् । यद्यस्त्यद्वैतहानिः स्याद् द्वैतं नो सहते श्रुतिः ॥५७१॥
अज्ञानकी आवरणशक्तिके रहने और न रहनेसे ही क्रमशः बन्ध और मोक्ष कहे जाते हैं और ब्रह्मका कोई आवरण हो नहीं सकता, क्योंकि उससे अतिरिक्त और कोई वस्तु है नहीं; अतः वह अनावृत है । यदि ब्रह्मका भी आवरण माना जाय तो अद्वैत सिद्ध नहीं हो सकता और द्वैत श्रुतिको मान्य नहीं है। ___ बन्धं च मोक्षं च मृषैव मूढा ..
बुद्धगुणं वस्तुनि कल्पयन्ति । हगावृति मेधकृतां यथा । वो
... यतोऽन्यासङ्गचिदेकमक्षरम् ॥५७२॥
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