________________
१८३
हितमिमनुपदेशमाद्रियन्तां
विहितनिरस्तसमस्त चित्तदोषाः ।
भवसुखविरताः प्रशान्तचित्ताः
प्रन्थ-प्रशंसा
श्रुतिरसिका यतयो मुमुक्षवो ये ॥ ५८० ॥
वेदान्तविहित श्रवणादिके द्वारा जिनके चित्त के समस्त दोष निकल गये हैं और जो संसारसुखसे विरक्त, शान्तचित्त, श्रुतिरहस्यके रसिक और मोक्षकामी हैं वे यतिजन इस हितकारी उपदेशका आदर करें।
ग्रन्थ-प्रशंसा
संसाराध्वनि तापभानुकिरणप्रोद्भूतदाहव्यथा
खिन्नानां जलकाङ्क्षन्या मरुभुवि श्रान्त्या परिभ्राम्यताम् । अत्यासनमुधाम्बुधिं सुखकरं ब्रह्माद्वयं दर्शयन्त्येषा शङ्करभारती विजयते निर्वाणसन्दायिनी । ५८१ । संसार-मार्ग में नाना प्रकारके क्लेशरूपी सूर्यकी किरणोंसे उत्पन्न ए दाइकी व्यथासे पीड़ित होकर मरुस्थलमें जलकी इच्छासे भटकते - माँ पुरुषों को अति निकटमें ही अद्वितीय ब्रह्मरूप अत्यन्त आनन्ददायक अमृतका समुद्र दिखानेवाली यह श्रीशंकराचार्यजीकी निर्वाणदायिनी वाणी निरन्तर जयको प्राप्त हो रही है ।
इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्य गोविन्द भगवत्पूज्यपादशिष्यश्रीमच्छङ्करभगवत्कृतो विवेकचूडामणिः समाप्तः ।
http://www.ApniHindi.com