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उपदेशका उपसंहार कामानी कामरूपी संश्चरत्येकचरो मुनिः । स्वात्मनैव सदा तुष्टः स्वयं सर्वात्मना स्थितः ॥५४२॥
वयं सर्वात्मभावसे स्थित, सदा अपने आत्मामें ही सन्तुष्ट और अकेला विचरनेवाला वह मुनि अपने इच्छानुसार ( जब इच्छा हो तब ) अन्न ग्रहण करता है और मनमाना रूप धारण कर विचरता रहता है।
कचिन्मूढो विद्वान्क्वचिदपि महाराजविभवः कचिद्भ्रान्तः सौम्यः क्वचिदजगराचारकलितः । कचित्पात्रीभूतः क्वचिदवमतः काप्यविदितश्वरत्येवं प्राज्ञः सततपरमानन्दसुखितः ॥५४३॥
ब्रह्मवेत्ता महापुरुष कहीं मूढ, कहीं विद्वान् और कहीं राजामहाराजाओंके-से ठाट-बाटसे युक्त दिखायी देता है। वह कहीं भ्रान्त, कहीं शान्त और कहीं अजगरके समान निश्चल भावसे पड़ा दीख पड़ता है । इस प्रकार निरन्तर परमानन्दमें मग्न हुआ विद्वान् कहीं सम्मानित, कहीं अपमानित और कहीं अज्ञात रहकर अलक्षित गतिसे विचरता है।
निर्धनोऽपि सदा तुष्टोऽप्यसहायो महाबलः । नित्यतृप्तोऽप्यभुञ्जानोऽप्यसमः समदर्शनः ॥५४४॥
वह निर्धन होनेपर भी सदा सन्तुष्ट, असहाय होनेपर भी महाबलवान्, भोजन न करनेपर भी नित्यतृप्त और विषयभावसे बर्तता हुआ भी समदर्शी होता है।
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