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विवेक-चूडामणि
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अपि कुर्व अक्कुर्वाणश्चाभोक्ता फलभोग्यपि । शरीर्यष्यशरीर्येष परिच्छिन्नोऽपि सर्वगः ॥ ५४५ ॥
वह महात्मा सब कुछ करता हुआ भी अकर्ता है, नाना प्रकार के फल भोगता हुआ भी अभोक्ता है, शरीरधारी होनेपर भी अशरीरी है और परिच्छिन्न होनेपर भी सर्वव्यापी है ।
अशरीरं सदा सन्तमिमं ब्रह्मविदं कचित् । प्रियाप्रिये न स्पृशतस्तथैव च शुभाशुभे ॥ ५४६ ॥ सदा अशरीर-भावमें स्थित रहनेसे इस ब्रह्मवेत्ताको प्रिय अथवा अप्रिय तथा शुभ अथवा अशुभ कभी छू नहीं सकते । स्थूलादिसम्बन्धवतोऽभिमानिनः
www.सुखं च दुःखं च शुभाशुभे च । विध्वस्तबन्धस्य सदात्मनो मुनेः
कुतः शुभं वाप्यशुभं फलं वा ॥ ५४७॥ जिस देहाभिमानीका स्थूल सूक्ष्म आदि देोंसे सम्बन्ध होता है, उसीको सुख अथवा दुःख तथा शुभ अथवा अशुभकी प्राप्ति होती है; जिसका देहादि-बन्धन टूट गया है, सत्स्वरूप मुनिको शुभ अथवा अशुभ फलकी प्राप्ति कैसे हो सकती है ? तमसा ग्रस्तवद्भानादग्रस्तोऽपि रविर्जनैः ।
उस
ग्रस्त इत्युच्यते भ्रान्त्या ह्यज्ञात्वा वस्तुलक्षणम् ॥५४८|| तद्वद्देहादिबन्धेभ्यो विमुक्तं ब्रह्मवित्तमम् । पश्यन्ति देहिवन्मूढाः शरीराभासदर्शनात् ॥ ५४९ ॥ वास्तविक बातको न जाननेके कारण जैसे राहुसे प्रस्त न होनेपर भी प्रस्त-सा प्रतीत होनेके कारण लोग भ्रमवश सूर्यको
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