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विवेक-चूडामणि
देवदत्तोऽहमित्येतद्विज्ञानं निरपेक्षकम् । तद्वब्रह्मविदोऽप्यस्य ब्रह्माहमिति वेदनम् ॥५३३॥
जिस प्रकार :मैं देवदत्त हूँ! इस ज्ञानमें किसी नियमकी अपेक्षा नहीं है उसी प्रकार ब्रह्मवेत्ताको 'मैं ब्रह्म हूँ' यह ज्ञान खतः ही होता है।
भानुनेव जगत्सवं भासते यस्य तेजसा । अनात्मकमसत्तुच्छं किं नु तस्यावभासकम् ॥५३४॥
सूर्यसे जैसे जगत् प्रकाशित होता है वैसे ही जिसके प्रकाशसे समस्त असत् और तुच्छ अनात्मपदार्थ भासते हैं उसको भासित करनेवाला और कौन हो सकता है ? com
वेदशास्त्रपुराणानि भूतानि सकलान्यपि ।
येनार्थवन्ति तं किं नु विज्ञातारं प्रकाशयेत् ॥५३५॥ _वेद, शास्त्र, पुराण और समस्त भूतमात्र जिससे अर्थवान् हो रहे हैं उस सर्वसाक्षी परमात्माको और कौन प्रकाशित करेगा ? एष स्वयंज्योतिरनन्तशक्ति
रात्माप्रमेयः सकलानुभूतिः। यमेव विज्ञाय विमुक्तबन्धो
जयत्ययं ब्रह्मविदुत्तमोत्तमः ॥५३६॥ यह [ सर्वसाक्षी ] आत्मा स्वयंप्रकाश, अनन्तशक्ति, अप्रमेय और सर्वानुभवस्वरूप है, इसको ही जान लेनेपर वह ब्रह्मवेत्ताओंमें सर्वश्रेष्ठ महात्मा संसार-बन्धनसे मुक्त होकर धन्य हो जाता है।
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