Book Title: Vivek Chudamani
Author(s): Shankaracharya, Madhavanand Swami
Publisher: Advaita Ashram

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Page 430
________________ उपदेशका उपसंहार विद्वान् मुनिको उचित है कि चलते-फिरते, बैठते-उठते, सोते-जागते अथवा किसी और अवस्था में रहते निरन्तर आत्मामें रमण करता हुआ इच्छानुकूल रहे । न देशकालासनदिग्यमादि लक्ष्याद्यपेक्षा प्रतिबद्धवृत्तेः । संसिद्धतत्त्वस्य महात्मनोऽस्ति खवेदने का नियमाद्यपेक्षा ॥५३०॥ जिसकी चित्तवृत्ति निरन्तर आत्मस्वरूपमें लगी रहती है तथा जिसे आत्मतत्त्वकी सिद्धि हो गयी है उस महापुरुषको देश, काल, आसन, दिशा, यम, नियम तथा लक्ष्य आदिकी कोई आवश्यकता नहीं है । अपने-आपको जान लेनेपर भला नियम आदिकी क्या अपेक्षा है ? घटोऽयमिति विज्ञातुं नियमः को न्वक्ष्यते । विना प्रमाणसुष्टुत्वं यसिन्सति पदार्थधीः ।।५३१॥ 'यह घड़ा है। ऐसा जाननेके लिये, जिससे वस्तुका ज्ञान होता है, उस प्रमाण-सौष्ठवके अतिरिक्त भला और किस नियमकी आवश्यकता है ? अयमात्मा नित्यसिद्धः प्रमाणे सति भासते । न देशं नापि वा कालं न शुद्धिं वाप्यपेक्षते ॥५३२॥ आत्मा नित्यसिद्ध है, प्रमाण होते ही वह स्वयं भासने लगता है। [ अपनी प्रतीतिके लिये ] वह देश, काल अथवा शुद्धि आदि किसीकी भी अपेक्षा नहीं रखता। http://www.Apnihindi.com

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