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विवेक-चूडामणि
अखण्डबोधात्मनि निर्विकल्पे विकल्पनं व्योम्नि पुरःप्रकल्पनम् ।
तदद्वयानन्दमयात्मना सदा
शान्ति परामेत्य भजस्व मौनम् ॥ ५२६ ॥
अखण्ड बोधस्वरूप निर्विकल्प आत्मामें किसी विकल्पका होना आकाश में नगरकी कल्पनाके समान है । इसलिये अद्वितीय आनन्दमय आत्मस्वरूप से स्थित होकर परमशान्ति लाभ कर मौन धारण करो ।
तूष्णीमवस्था
परमोपशान्तिरसत्कल्पविकल्प हेतोः
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ब्रह्मात्मना ब्रह्मविदो महात्मनो com यत्राद्वयानन्दसुखं
निरन्तरम् ||५२७||
महात्मा ब्रह्मवेत्ताके मिथ्या विकल्पोंकी हेतुभूता बुद्धिकी जो ब्रह्मभावसे मौनावस्था है वही परम उपशम है, जिसमें कि निरन्तर अद्वयानन्दरसका अनुभव होता है ।
नास्ति निर्वासनान्मौनात्परं सुखकृदुत्तमम् । विज्ञातात्मखरूपस्य स्वानन्दरसपायिनः ॥ ५२८ ॥
जिसने आत्मस्वरूपको जान लिया है उस खानन्दरसका पान करनेवाले पुरुषके लिये वासनारहित मौनसे बढ़कर उत्तम सुखदायक और कुछ भी नहीं है ।
गच्छं स्तिष्ठन्नुप विशञ्छयानो वान्यथापि वा । यथेच्छया वसेद्विद्वानात्मारामः सदा मुनिः ॥५२९ ॥
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