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विवेक-चूडामणि अत्यन्त व्यथित मुझ दीनको निद्रासे जगाकर आपने मेरी बहुत बड़ी रक्षा की है।
नमस्तस्मै सदेकस्मै कस्मैचिन्महसे नमः । यदेतद्विश्वरूपेण राजते गुरुराज ते॥५२०॥
हे गुरुराज ! आपके किसी उस महान् तेजको नमस्कार है, जो सत्वरूप और एक होकर भी विश्वरूपसे विराजमान है।
उपदेशका उपसंहार इति नतमवलोक्य शिष्यवयं
समधिगतात्मसुखं प्रबुद्धतत्त्वम् । प्रमुदितहृदयः स देशिकेन्द्रः
पुनरिदमाह वचः परं महात्मा ॥५२१॥ इस प्रकार आत्मानन्द-और तत्त्वबोधको प्राप्त हुए उस शिष्यश्रेष्ठको प्रणाम करते देख महात्मा गुरुदेव अति प्रसन्नचित्तसे फिर इस प्रकार श्रेष्ठ वचन कहने लगे।
ब्रह्मप्रत्ययसन्ततिर्जगदतो ब्रह्मैव सत्सर्वतः पश्याध्यात्मशाप्रशान्तमनसा सर्वास्ववस्थास्वपि । रूपादन्यदवेक्षितुं किममितश्चक्षुष्मतां विद्यते तद्वत् ब्रह्मविदः सतः किमपरं बुद्धेविहारास्पदम् ।५२२।
हे वत्स ! अपनी आध्यात्मिक दृष्टिसे शान्तचित्त होकर सब अवस्थाओंमें . ऐसा ही देख कि यह संसार ब्रह्म-प्रतीतिका ही प्रवाह है इसलिये यह सर्वथा सत्यस्वरूप ब्रह्म ही है। नेत्रयुक्त व्यक्तिको चारों ओर देखनेके लिये रूपके अतिरिक्त और क्या
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