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बोधोपलब्धि निष्क्रियोऽस्म्यविकारोऽसि निष्कलोऽस्मि निराकृतिः । निर्विकल्पोऽसि नित्योऽसि निरालम्बोऽसि निर्द्वयः ॥
मैं क्रियारहित, विकाररहित, कलारहित और निराकार हूँ तथा निर्विकल्प, नित्य, निरालम्ब और अद्वितीय हूँ।
सर्वात्मकोऽहं सर्वोऽहं सर्वातीतोऽहमद्वयः । केवलाखण्डबोधोऽहमानन्दोऽहं निरन्तरः ॥५१७॥
मैं सबका आत्मा, सर्वरूप, सबसे परे और अद्वितीय हूँ; तथा केवल अखण्डज्ञानस्वरूप और निरन्तर आनन्दरूप हूँ। खाराज्यसाम्राज्यविभूतिरेषा
_ भवत्कृपाश्रीमहिमप्रसादात् । प्राप्ता मया श्रीगुरवे महात्मने।
नमो नमस्तेऽस्तु पुनर्नमोऽस्तु ॥५१८॥ हे गुरो ! आपकी कृपा और महिमाके प्रसादसे मुझे यह खाराज्य-साम्राज्यकी विभूति प्राप्त हुई है। आप महात्माको मेरा बारंबार नमस्कार हो।
महास्वप्ने मायाकृतजनिजरामृत्युगहने भ्रमन्तं क्लिश्यन्तं बहुलतरतापैरनुदिनम् । अहङ्कारव्याघ्रव्यथितमिममत्यन्तकृपया प्रबोध्य प्रस्खापात्परमवितवान्मामसि गुरो ॥५१९॥
मैं मायासे प्रतीत होनेवाले जन्म, जरा और मृत्युके कारण अत्यन्त भयानक महास्वप्नमें भटकता हुआ दिन-दिन नाना प्रकारके तापोंसे सन्तप्त हो रहा था, हे गुरो ! अहंकाररूपी व्याघ्रसे
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