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बोधोपलब्धि जिस प्रकार [जलरूप ] उपाधिके चञ्चल होनेपर मूढबुद्धि पुरुष औपाधिक प्रतिविम्बकी चञ्चलताका विम्बभूत सूर्यमें आरोप करते हैं उसी प्रकार वे सूर्यके समान निष्क्रिय आत्मामें [ चित्तकी चश्चलताका आरोपकर ] 'मैं कर्ता हूँ, भोक्ता हूँ, हाय मारा गया' ऐसा कहा करते हैं।
जले वापि स्थले वापि लुठत्वेष जडात्मकः । नाहं विलिप्ये तद्धमैर्घटधमैंनभो यथा ॥५१०॥
घड़ेके धर्मोंसे जैसे आकाशका कोई सम्बन्ध नहीं होता वैसे ही यह जड देह जलमें अथवा स्थलमें कहीं भी लोटता रहे मैं इसके धर्मोंसे लिप्त नहीं हो सकता । कर्तृत्वभोक्तृत्वखलत्वमत्तता-ndi . com
जडत्वबद्धत्वविमुक्ततादयः । बुद्धेर्विकल्पा न तु सन्ति वस्तुतः
स्वमिन्परे ब्रह्मणि केवलेऽद्वये ॥५११॥ कर्तापन, भोक्तापन, दुष्टता, उन्मतता, जडता, बन्धन और मोक्ष—ये सब बुद्धिकी ही कल्पनाएँ हैं; ये प्रकृति आदिसे अतीत केवलं अद्वितीय ब्रह्मस्वरूप स्वात्मामें वस्तुतः नहीं हैं।
सन्तु विकाराः प्रकृतेर्दशधा शतधा सहस्रधा वापि । किं मेऽसङ्गचितेस्तैर्न घनः क्वचिदम्बरं स्पृशति ॥५१२॥
प्रकृतिमें दसों, सैकड़ों और हजारों विकार क्यों न हों उनसे मुझ असंग चेतन आत्माका क्या सम्बन्ध ? मेघ कभी भी आकाशको नहीं छू सकता।
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