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विवेक-चूडामणि
१६२ उनके साक्षी आत्माको जो विकाररहित एवं उदासीन है, तनिक भी नहीं छू सकते। रवेर्यथा कर्मणि साक्षिभावो
- वह्वर्यथा वायसि दाहकत्वम् । रजोयथारोपितवस्तुसङ्ग
स्तथैव कूटस्थचिदात्मनो मे ॥५०७॥ मनुष्योंके कोंमें जैसे सूर्यका साक्षीभाव है, लोहेके जलानेमें जैसे अग्निकी दाहकता है और आरोपित सादिसे जैसे रज्जुका संग है वैसे ही मुझ कूटस्थ चेतन आत्माका विषयोंमें साक्षीभाव है । [अर्थात् जैसे उनकी प्रवृत्तियाँ स्वाभाविक हैं, क्रियमाण नहीं, वैसे ही आत्माका साक्षीभाव भी विषयोंकी अपेक्षासे खाभाविक है, वह उसकी क्रिया नहीं है। कर्तापि वा कारयितापि नाहं
भोक्तापि वा भोजयितापि नाहम् । द्रष्टापि वा दर्शयितापि नाह
सोऽहं स्वयंज्योतिरनीहगात्मा ॥५०८॥ मैं न करनेवाला हूँ, न करानेवाला हूँ; न भोगनेवाला हूँ, न भुगतानेवाला हूँ; और न देखनेवाला हूँ, न दिखानेवाला हूँ। मैं तो सबसे विलक्षण स्वयंप्रकाश आत्मा ही हूँ। चलत्युपाधौ प्रतिविम्बलौल्य
मौपाधिकं मूढधियो नयन्ति । स्वविम्बभूतं रविवद्विनिष्क्रिय
कर्तासि मोक्कासि हतोऽसि हेति ॥५०९॥
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