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आत्म-ष्टि क्रियासममिहारेण यत्र नान्यदिति श्रुतिः। ब्रवीति द्वैतराहित्यं मिथ्याध्यासनिवृत्तये ॥३९३॥
कार्यरूप द्वैतका उपसंहार करते हुए 'जहाँ और कुछ नहीं देखता' ऐसी अद्वैतपरक श्रुति * मिथ्या अध्यासकी निवृत्तिके लिये बारंबार द्वैतका अभाव बतलाती है। आकाशवनिर्मलनिर्विकल्प
निःसीमनिष्पन्दननिर्विकारम् । अन्तर्बहिःशून्यमनन्यमद्वयं
स्वयं परं ब्रह्म किमस्ति बोध्यम् ।।३९४॥ जो परब्रह्म स्वयं आकाशके समान निर्मल, निर्विकल्प, निःसीम, निश्चल, निर्विकार, बाहर-भीतर सब ओरसे शून्य, अनन्य और अद्वितीय है वह क्या ज्ञानका विषय हो सकता है ?
वक्तव्यं किमु विद्यतेऽत्र बहुधा ब्रह्मैव जीवः स्वयं ब्रह्मेतज्जगदाततं नु सकलं ब्रह्माद्वितीयं श्रुतेः। ब्रह्मवाहमिति प्रबुद्धमतयः सन्त्यक्तवाद्याः स्फुटं ब्रह्मीभूय वसन्ति सन्ततचिदानन्दात्मनैव ध्रुवम् ॥३९५॥
इस विषयमें और अधिक क्या कहना है ? जीव तो खयं ब्रह्म ही है और ब्रह्म ही यह सम्पूर्ण जगतरूपसे फैला हुआ है, क्योंकि श्रुति * 'यत्र नान्यत् पश्यति नान्यच्छृणोति नान्यद्विजानाति स भूमा'
(छान्दोग्य० ७ । २४ । १) वि० च०९
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