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प्रवृत्तिब्रह्मात्मनोरेकतयाधिगत्या
बुद्धिर्विनष्टा गलिता
इदं न जानेऽप्यनिदं न जाने
बोधोपलब्ध
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किं वा कियद्वा सुखमस्त्यपारम् ||४८२||
अहो ! ब्रह्म और आत्माकी एकताका ज्ञान होनेपर मेरी बुद्धि तो एकदम नष्ट हो गयी, सारी प्रवृत्ति दूर हो गयी, अब मुझे न इदं ( प्रत्यक्ष वस्तु ) का ज्ञान है और न अनिदं ( अप्रत्यक्ष ) का और न मैं यही जानता हूँ कि वह अपार आनन्द कैसा और कितना है ।
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वाचा वक्तुमशक्यमेव मनसा मन्तुं न वा शक्यते स्वानन्दामृतपूरपूरितपरब्रह्माम्बुधेवैभवम् अम्भोराशिविशीर्णवार्षिकशिलाभावं भजन्मे मनो यस्यांशांशलवे विलीनमधुनानन्दात्मना निर्वृतम् ||४८३॥
जलराशि (समुद्र) में पड़कर गले हुए वर्षाकालिक ओलोंकी अवस्थाको प्राप्त हुआ मेरा मन जिस आनन्दामृतसमुद्र के एक अंशके भी अंशमें लीन होकर अब अति आनन्दरूपसे स्थित हो गया है, उस आत्मानन्दरूप अमृतप्रत्राहसे परिपूर्ण परब्रह्मसमुद्रका वैभव वाणी से नहीं कहा जा सकता और मनसे मनन नहीं किया जा सकता ।
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वगतं केन वा नीतं कुत्र लीनमिदं जगत् । अधुनैव मया दृष्टं नास्ति किं महदद्भुतम् ||४८४ ॥