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बोधोपलब्धि
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भिन्न-भिन्न देखे गये थे वह भोक्ता और भोग्य सब कुछ स्वयं
मैं ही हूँ ।
मय्यखण्ड सुखाम्भोधौ बहुधा विश्ववीचयः । उत्पद्यन्ते विलीयन्ते मायामारुतविभ्रमात् ॥४९७|| मुझ अखण्ड आनन्द- समुद्र में विश्वरूपी नाना तरङ्गे मायारूपी वायुके वेगसे उठती और लीन होती रहती हैं । स्थूलादिभावा मयि कल्पिता भ्रमादारोपिता नु स्फुरणेन लोकैः ।
यथा कल्पकवत्सराय
काले
जैसे
नर्त्वादयो निष्कल निर्विकल्पे ||४९८ || प काल में स्वरूपसे कोई कल्प, वर्ष, अयन ( उत्तरायण-दक्षिणायन ) और ऋतु आदिका विभाग नहीं है उसी प्रकार लोगोंने भ्रमवश केवळ स्फुरणमात्र से ही आरोपित करके मुझमें स्थूल सूक्ष्म आदि भात्रोंकी कल्पना कर ली है ।
आरोपितं
नाश्रयदूषकं भवे
कदापि नाद्रकरोत्यूपरभूमिभागं
मूढैर्मतिदोषदूषितैः ।
मरीचिकाव (रिमहाप्रवाहः
॥४९९॥
बुद्धि-दोषसे दूषित अज्ञानियोंद्वारा आरोपित की हुई वस्तु अपने आश्रयको दूषित नहीं कर सकती; जैसे मृगतृष्णाका महान् जल-प्रवाह अपने आश्रय ऊपर भूमि खण्डको [ तनिक भी ] गीला नहीं करता ।
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