Book Title: Vivek Chudamani
Author(s): Shankaracharya, Madhavanand Swami
Publisher: Advaita Ashram

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Page 406
________________ प्रारम्प-विचार जग जानेपर जैसे स्खमावस्थाके कर्म लीन हो जाते हैं वैसे ही मैं ब्रह्म हूँ। ऐसा ज्ञान होते ही करोड़ों कल्पोंके सश्चित कर्म नष्ट हो जाते हैं। यत्कृतं स्वमवेलायां पुण्यं वा पापमुल्बणम् । सुप्तोत्थितस्य किं तत्स्यात्स्वर्गाय नरकाय वा ॥४४९॥ खमावस्थामें जो बड़े-से-बड़ा पुण्य अथवा पाप किया जाता है, क्या जग पड़नेपर वह स्वर्ग अथवा नरककी प्राप्तिका कारण हो सकता है ! स्वमसङ्गमदासीनं परिज्ञाय नमो यथा । न श्लिष्यते यतिः किश्चित्कदाचिद्भाविकर्मभिः ॥४५०॥ जो यति अपनेको आकाशके समान असंग और उदासीन जान लेता है वह किसी भी आगामी कर्मसे कभी थोड़ा-सा भी लिप्त नहीं हो सकता। न नमो घटयोगेन सुरागन्धेन लिप्यते । तथात्मोपाधियोगेन तद्धमै व लिप्यते ॥४५१॥ जैसे घड़ेके सम्बन्धसे घड़ेमें रखी हुई मदिराकी गन्धसे आकाशका कोई सम्बन्ध नहीं होता उसी प्रकार उपाधिके सम्बन्धसे आत्मा उपाधिके धर्मोसे लिप्स नहीं होता। ज्ञानोदयात्पुरारब्धं कर्म ज्ञानान नश्यति । अदत्वा स्वफलं लक्ष्यमुद्दिश्योत्सृष्टवाणवत् ॥४५२॥ व्याघ्रबुद्धया विनिर्मुक्तो बाणः पश्चात्तु गोमतो। . . न तिष्ठति छिनस्येव लक्ष्य वेगेन निर्भरम् ॥४५॥ वि.च०१० http://www.Apnihindi.com

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