________________
१४६
विवेक-चूडामणि - लक्ष्यकी ओर छोड़ दिये गये बाणके समान ज्ञानके उदयसे पूर्व ही आरम्भ हुआ कर्म अपना फल दिये बिना ज्ञानसे नष्ट नहीं होता, जैसे व्याघ्र समझकर गौकी ओर छोड़ा हुआ बाण पीछे उसको गौ जान लेनेपर भी बीच में नहीं रोका जा सकता, वह तो तुरंत अपने लक्ष्यको वेध ही देता है।
प्रारब्धं बलवत्तरं खलु विदा भोगेन तस्य क्षयः सम्यग्ज्ञानहुताशनेन विलयः प्राक्सश्चितागामिनाम् । ब्रह्मात्मैक्यमवेक्ष्य तन्मयतया ये सर्वदा संस्थितास्तेषां तत्रितयं न हि क्वचिदपि ब्रह्मैव ते निर्गुणम्॥४५४॥
विद्वान्का प्रारब्ध-कर्म अवश्य ही बलवान् होता है। उसका क्षय भोगनेसे ही हो सकता है। उसके अतिरिक्त पूर्वसञ्चित और आगामी कर्मोंका तो तत्त्वज्ञानरूप अग्निसे क्षय हो जाता है । किन्तु जो ब्रह्म और आत्माकी एकताको जानकर सदा उसी भावमें स्थित रहते हैं उनकी दृष्टिमें तो वे (प्रारब्ध, सञ्चित और आगामी ) तीनों प्रकारके ही कर्म कहीं नहीं हैं, वे तो मानो साक्षात् निर्गुण ब्रह्म ही हैं। । उपाधितादात्म्यविहीनकेवल
ब्रह्मात्मनैवात्मनि तिष्ठतो मुनेः । प्रारब्धसद्भावकथा न युक्ता
स्वमार्थसम्बन्धकथेव जाग्रतः॥४५५॥ जो मुनिश्रेष्ठ उपाधिके सम्बन्धको छोड़कर केवल ब्रह्मात्मभावसे ही अपने खरूपमें स्थित रहता है उसके प्रारब्ध कोकी
http://www.Apnihindi.com