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प्रारब्ध-विचार शरीरस्थापि प्रारब्धकल्पना भ्रान्तिरेव हि । अध्यस्तस्य कुतः सचमसत्त्वस्य कुतो जनिः । अजातस्य कुतो नाशः प्रारब्धमसतः कुतः ॥४६२।।
और वास्तवमें तो शरीरका भी प्रारब्ध मानना भ्रम ही है, क्योंकि वह तो स्वयं अध्यस्त ( भ्रमसे कल्पित ) है और अध्यस्त वस्तुकी सत्ता ही कहाँ होती है ? तथा जिसकी सत्ता ही न हो; उसका जन्म भी कहाँसे आया ? और जिसका जन्म ही न हो, उसका नाश भी कैसे हो सकता है इस प्रकार जो सर्वथा सत्ताशून्य है उसका प्रारब्ध कैसे हो सकता है ?
ज्ञानेनाज्ञानकार्यस्य समूलस्य लयो यदि । तिष्ठत्ययं कथं देह इति शकावतो जडान् । समाधातुं बाह्यदृष्टया प्रारब्धं वदति श्रुतिः ॥४६३॥ न तु देहादिसत्यत्वबोधनाय विपश्चिताम् । यतः श्रुतेरभिप्रायः परमार्थैकगोचरः ॥४६४॥
जिनको ऐसी शङ्का होती है कि यदि ज्ञानसे अज्ञानका मूलसहित नाश हो जाता है तो ज्ञानीका यह स्थूल देह कैसे रहता है, उन मूर्योको समझानेके लिये श्रुति ऊपरी दृष्टि से प्रारब्धको उसका कारण बतला देती है । वह विद्वान्को देहादिका सत्यत्व समझानेके लिये ऐसा नहीं कहती; क्योंकि श्रुतिका अभिप्राय तो एकमात्र परमार्थवस्तुका वर्णन करनेमें ही है।
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